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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 183/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्राजावान्प्राजापत्यः
देवता - अन्वृचं यजमानयजमानपत्नीहोत्राशिषः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अप॑श्यं त्वा॒ मन॑सा॒ चेकि॑तानं॒ तप॑सो जा॒तं तप॑सो॒ विभू॑तम् । इ॒ह प्र॒जामि॒ह र॒यिं ररा॑ण॒: प्र जा॑यस्व प्र॒जया॑ पुत्रकाम ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑श्यम् । त्वा॒ । मन॑सा । चेकि॑तानम् । तप॑सः । जा॒तम् । तप॑सः । विऽभू॑तम् । इ॒ह । प्र॒ऽजाम् । इ॒ह । र॒यिम् । ररा॑णः । प्र । जा॒य॒स्व॒ । प्र॒ऽजया॑ । पु॒त्र॒ऽका॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपश्यं त्वा मनसा चेकितानं तपसो जातं तपसो विभूतम् । इह प्रजामिह रयिं रराण: प्र जायस्व प्रजया पुत्रकाम ॥
स्वर रहित पद पाठअपश्यम् । त्वा । मनसा । चेकितानम् । तपसः । जातम् । तपसः । विऽभूतम् । इह । प्रऽजाम् । इह । रयिम् । रराणः । प्र । जायस्व । प्रऽजया । पुत्रऽकाम ॥ १०.१८३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 183; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 41; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 41; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में स्वयंवरविवाह का वर्णन है, विवाह का प्रस्ताव वधू की ओर से होना चाहिए, उसका व्ययभार पति को अपने ऊपर लेना होगा, गृहस्थधर्म ऋतु पर करना इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ -
(त्वा) हे ब्रह्मचारी ! तुझ (तपसः जातम्) ब्रह्मचर्यरूप तप से संपन्न (तपसः-विभूतम्) ब्रह्मचर्यरूप तप से पुष्टि वैभव प्राप्त (मनसा चेकितानम्) मन से अपना अभिप्राय जनाते हुए को (अपश्यम्) मैं देखती हूँ (पुत्रकाम) हे पुत्र की कामना करनेवाले ! (इह प्रजाम्) इस गृहस्थ आश्रम में सन्तान को (इह रयिम्) इस गृहस्थ आश्रम में धन को (रराणः) मुझे देने के हेतु (प्रजया प्रजायस्व) प्रजारूप से मेरे अन्दर उत्पन्न हो ॥१॥
भावार्थ - विवाह के लिए प्रथम प्रस्ताव वधू की ओर से होना चाहिए, वर ब्रह्मचर्य से सम्पन्न पुष्ट हुआ सन्तान की कामना करनेवाला हो और पत्नी के समस्त व्यय का भार अपने ऊपर रखने में समर्थ हो ॥१॥
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