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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 183 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 183/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्राजावान्प्राजापत्यः देवता - अन्वृचं यजमानयजमानपत्नीहोत्राशिषः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अप॑श्यं त्वा॒ मन॑सा॒ दीध्या॑नां॒ स्वायां॑ त॒नू ऋत्व्ये॒ नाध॑मानाम् । उप॒ मामु॒च्चा यु॑व॒तिर्ब॑भूया॒: प्र जा॑यस्व प्र॒जया॑ पुत्रकामे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑श्यम् । त्वा॒ । मन॑सा । दीध्या॑नाम् । स्वाया॑म् । त॒नू इति॑ । ऋत्व्ये॑ । नाध॑मानाम् । उप॑ । माम् । उ॒च्चा । यु॒व॒तिः । ब॒भू॒याः॒ । प्र । जा॒य॒स्व॒ । प्र॒ऽजया॑ । पु॒त्र॒ऽका॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपश्यं त्वा मनसा दीध्यानां स्वायां तनू ऋत्व्ये नाधमानाम् । उप मामुच्चा युवतिर्बभूया: प्र जायस्व प्रजया पुत्रकामे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपश्यम् । त्वा । मनसा । दीध्यानाम् । स्वायाम् । तनू इति । ऋत्व्ये । नाधमानाम् । उप । माम् । उच्चा । युवतिः । बभूयाः । प्र । जायस्व । प्रऽजया । पुत्रऽकाम ॥ १०.१८३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 183; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 41; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (स्वायां तनू) हे देवि ! अपने शरीर में (ऋत्व्ये) ऋतुकाल पर (नाधमानाम्) गृहस्थधर्म की याचना करती हुई को (मनसा दीध्यानाम्) अपने मन से दीप्यमान तेजस्विनी को (त्वा-अपश्यम्) मैं पुरुष तुझे देखता हूँ (माम्-उप) मेरे समीप (उच्चा युवतिः-बभूयाः) आदर पाई हुई तू युवती हो, बनी रह (पुत्रकामे) हे पुत्रों को चाहनेवाली ! (प्रजया-प्रजायस्व) सन्तति से प्रजा के लक्ष्य से सन्तान उत्पन्न कर ॥२॥

    भावार्थ - विवाहसम्बन्धी वधू के प्रस्ताव को वर स्वीकार करे, यौवनसम्पन्न तेजस्विनी वधू के साथ विवाह करना चाहिये, विवाह सन्तानोत्पत्ति के लिए करने का आदेश है तथा गृहस्थधर्म ऋतुकाल में किया जाना चाहिए, अन्यथा नहीं ॥२॥

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