ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 51/ मन्त्र 2
को मा॑ ददर्श कत॒मः स दे॒वो यो मे॑ त॒न्वो॑ बहु॒धा प॒र्यप॑श्यत् । क्वाह॑ मित्रावरुणा क्षियन्त्य॒ग्नेर्विश्वा॑: स॒मिधो॑ देव॒यानी॑: ॥
स्वर सहित पद पाठकः । मा॒ । द॒द॒र्श॒ । क॒त॒मः । सः । दे॒वः । यः । मे॒ । त॒न्वः॑ । ब॒हु॒धा । प॒रि॒ऽअप॑श्यत् । क्व॑ । अह॑ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । क्षि॒य॒न्ति॒ । अ॒ग्नेः । विश्वाः॑ । स॒म्ऽइधः॑ । दे॒व॒ऽयानीः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
को मा ददर्श कतमः स देवो यो मे तन्वो बहुधा पर्यपश्यत् । क्वाह मित्रावरुणा क्षियन्त्यग्नेर्विश्वा: समिधो देवयानी: ॥
स्वर रहित पद पाठकः । मा । ददर्श । कतमः । सः । देवः । यः । मे । तन्वः । बहुधा । परिऽअपश्यत् । क्व । अह । मित्रावरुणा । क्षियन्ति । अग्नेः । विश्वाः । सम्ऽइधः । देवऽयानीः ॥ १०.५१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 51; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(कः-मा ददर्श) वह कौन देव मुझे देखता है-जानता है, प्राणों में छिपे हुए या जलों के अन्तर्गत छिपे हुए को (कतमः सः-देवः-यः-मे बहुधा तन्वः) बहुतेरे देवों में कौन सुख देनेवाला प्रकाशक या विद्वान् है, जो मेरे बहुत सारे अङ्गों को या तरङ्गों को (परि-अपश्यत्) देखता है-जानता है (मित्रावरुणा) हे प्राणापानो इन्द्रियदेवों में अग्रभूत ! विद्युत् की शुष्क-आर्द्र धाराओं या उनके जाननेवाले मनीषी शिल्पियों ! (अग्नेः क्व-अह) मुझ ज्ञानी आत्मा या विद्युदग्नि के जाननेवाले अरे कहाँ (देवयानीः-विश्वाः-समिधः-क्षियन्ति) परमात्मा के प्रति जानेवाली, देवयान के साधनभूत, वैज्ञानिक विद्वान् को जनानेवाली सम्यग्दीप्त चेतन शक्तियाँ या सम्यग्दीप्तिनिमित्त तरङ्गें कहाँ रहती हैं, यह जानना चाहिए ॥२॥
भावार्थ - प्राणों के अन्दर आत्मा को कौनसा देव सुख देनेवाला आत्मा के अङ्गों को परमात्मा की ओर जानेवाली उसकी चेतनशक्तियों को जानता है। उसको समझना चाहिए। एवं-मेघजलों में निहित विद्युत् अग्नि की तरङ्गों को कौन वैज्ञानिक जानता है, जो परमात्मदेव को दर्शानेवाली हैं। उन्हें भी जानना चाहिए ॥२॥
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