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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 56/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त॒नूष्टे॑ वाजिन्त॒न्वं१॒॑ नय॑न्ती वा॒मम॒स्मभ्यं॒ धातु॒ शर्म॒ तुभ्य॑म् । अह्रु॑तो म॒हो ध॒रुणा॑य दे॒वान्दि॒वी॑व॒ ज्योति॒: स्वमा मि॑मीयाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त॒नूः । ते॒ । वा॒जि॒न् । त॒न्व॑म् । नय॑न्ती । वा॒मम् । अ॒स्मभ्य॑म् । धातु॑ । शर्म॑ । तुभ्य॑म् । अह्रु॑तः । म॒हः । ध॒रुणा॑य । दे॒वान् । दि॒विऽइ॑व । ज्योतिः॑ । स्वम् । आ । मि॒मी॒याः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तनूष्टे वाजिन्तन्वं१ नयन्ती वाममस्मभ्यं धातु शर्म तुभ्यम् । अह्रुतो महो धरुणाय देवान्दिवीव ज्योति: स्वमा मिमीयाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तनूः । ते । वाजिन् । तन्वम् । नयन्ती । वामम् । अस्मभ्यम् । धातु । शर्म । तुभ्यम् । अह्रुतः । महः । धरुणाय । देवान् । दिविऽइव । ज्योतिः । स्वम् । आ । मिमीयाः ॥ १०.५६.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 56; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (वाजिन्) हे ज्ञानवन् चेतन ! (ते तन्वम्) हमारे देह में उत्पन्न बालक ! तेरे शरीर को (तनूः-नयन्ती) आत्मा अर्थात् आत्मशक्ति बढ़ाती हुई (अस्मभ्यं वामं धातु) हमारे लिये वननीय सुख को धारण कराये-प्राप्त कराये (तुभ्यं शर्म) तेरे लिये सुख प्राप्त कराये (महः-देवान्) महान् देवों-विद्वानों को (धरुणाय) धारण करने के लिये-शरण प्राप्त करने के लिए (दिवि-इव ज्योतिः) द्युमण्डल में जैसे सूर्य प्रकाशित होता है, वैसे ही (स्वम्-आ मिमीयाः) अपने को-अपने स्वरूप को बना ॥२॥

    भावार्थ - परिवार में जब आत्मा का जन्म होता है, तो वह सूर्य के समान घर को प्रकाशित करता है और समस्त घरवालों के लिए सुख देनेवाला हुआ-हुआ अपने को भी सुखी बनाता है। उससे भी आगे उत्तम सुख लेने के लिये विद्वानों की संगति में सूर्यसमान तेजस्वी उसे बनना चाहिये ॥२॥

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