ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 57/ मन्त्र 1
ऋषिः - बन्धुः सुबन्धुः श्रुतबन्धुर्विप्रबन्धुश्च गौपयाना लौपयाना वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
मा प्र गा॑म प॒थो व॒यं मा य॒ज्ञादि॑न्द्र सो॒मिन॑: । मान्त स्थु॑र्नो॒ अरा॑तयः ॥
स्वर सहित पद पाठमा । प्र । गा॒म॒ । प॒थः । व॒यम् । मा । य॒ज्ञात् । इ॒न्द्र॒ । सो॒मिनः॑ । मा । अ॒न्तरिति॑ । स्थुः॒ । नः॒ । अरा॑तयः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा प्र गाम पथो वयं मा यज्ञादिन्द्र सोमिन: । मान्त स्थुर्नो अरातयः ॥
स्वर रहित पद पाठमा । प्र । गाम । पथः । वयम् । मा । यज्ञात् । इन्द्र । सोमिनः । मा । अन्तरिति । स्थुः । नः । अरातयः ॥ १०.५७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 57; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में ‘विश्वेदेवाः’ से विद्यानिष्णात विद्वान् गृहीत हैं। उनसे शिक्षाप्राप्ति, वेदाध्ययन से व्यवहारज्ञानग्रहण, और संयमपूर्वक परमात्मा का श्रवणमनननिदिध्यासनसाक्षात्कार श्रवणचतुष्टय करना कहा है।
पदार्थ -
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (वयं सोमिनः पथः-मा प्रगाम) हम तेरे अध्यात्मैश्वर्यवाले मार्ग से-उपदेशरूप मार्ग से कभी पृथक् न चलें (मा यज्ञात्) तथा न तेरे यजन से-सङ्गमसम्बन्ध से पृथक् हों (अरातयः-मा नः-अन्तः स्थुः) रसरक्तादि धातुओं को क्षीण करनेवाले कामादि शत्रु हमारे अन्दर या मध्य में न रहें ॥१॥
भावार्थ - मनुष्य को परमात्मा के उपदिष्ट वेद आदेश से पृथक् आचरण नहीं करना चाहिए। वही जीवन का सच्चा मार्ग है। आन्तरिक जीवन का शोषण करनेवाले जो कामादि दोष हैं, उनसे बचने का भी वेद द्वारा उपदिष्ट अध्यात्ममार्ग है ॥१॥
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