ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
ऋषिः - बन्धुः सुबन्धुः श्रुतबन्धुर्विप्रबन्धुश्च गौपयाना लौपयाना वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यो य॒ज्ञस्य॑ प्र॒साध॑न॒स्तन्तु॑र्दे॒वेष्वात॑तः । तमाहु॑तं नशीमहि ॥
स्वर सहित पद पाठयः । य॒ज्ञस्य॑ । प्र॒ऽसाध॑नः । तन्तुः॑ । दे॒वेषु॑ । आऽत॑तः । तम् । आऽहु॑तम् । न॒शी॒म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो यज्ञस्य प्रसाधनस्तन्तुर्देवेष्वाततः । तमाहुतं नशीमहि ॥
स्वर रहित पद पाठयः । यज्ञस्य । प्रऽसाधनः । तन्तुः । देवेषु । आऽततः । तम् । आऽहुतम् । नशीमहि ॥ १०.५७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 57; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(यः) जो (यज्ञस्य साधनः-तन्तुः) अध्यात्मयज्ञ का साधक क्रम अर्थात् श्रवण, मनन, निदिध्यासन और साक्षात्कार है (देवेषु-आततः) मुमुक्षु जनों में परिपूर्ण होता है-आचरित होता है (तम्-आहुतं प्र नशीमहि) उस ही प्रसिद्ध को हम प्राप्त हों ॥२॥
भावार्थ - अध्यात्मयज्ञ के साधन श्रवण, मनन और निदिध्यासन तथा साक्षात्कार को आचरण में लाना चाहिए ॥२॥
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