ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 18
इति॑ त्वा दे॒वा इ॒म आ॑हुरैळ॒ यथे॑मे॒तद्भव॑सि मृ॒त्युब॑न्धुः । प्र॒जा ते॑ दे॒वान्ह॒विषा॑ यजाति स्व॒र्ग उ॒ त्वमपि॑ मादयासे ॥
स्वर सहित पद पाठइति॑ । त्वा॒ । दे॒वाः । इ॒मे । आ॒हुः॒ । ऐ॒ळ॒ । यथा॑ । ई॒म् । ए॒तत् । भव॑सि । मृ॒त्युऽब॑न्धुः । प्र॒ऽजा । ते॒ । दे॒वान् । ह॒विषा॑ । य॒जा॒ति॒ । स्वः॒ऽगे । ऊँ॒ इति॑ । त्वम् । अपि॑ । मा॒द॒या॒से॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इति त्वा देवा इम आहुरैळ यथेमेतद्भवसि मृत्युबन्धुः । प्रजा ते देवान्हविषा यजाति स्वर्ग उ त्वमपि मादयासे ॥
स्वर रहित पद पाठइति । त्वा । देवाः । इमे । आहुः । ऐळ । यथा । ईम् । एतत् । भवसि । मृत्युऽबन्धुः । प्रऽजा । ते । देवान् । हविषा । यजाति । स्वःऽगे । ऊँ इति । त्वम् । अपि । मादयासे ॥ १०.९५.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 18
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
पदार्थ -
(ऐळ) हे वाणी में कुशल बहुत वक्ता पते ! (इमे देवाः) ये विद्वान् जन (त्वा) तुझे (इति) ऐसा (आहुः) कहते हैं (इम्-एतत्) यह कि (यथा) जैसे (मृत्युबन्धुः) मृत्यु जिसका बन्धु है-पीड़ा देनेवाला नहीं है, ऐसा तू (भवसि) हो जावेगा, मुझसे विरक्त होकर (ते) तेरा (प्रजा) सन्तति-पुत्र (हविषा) अन्नादि से (देवान्) विद्वानों का (यजाति) सत्कार करेगा-तेरी प्रसिद्धि करेगा (त्वम्-अपि) तू भी (स्वर्गे-उ) मोक्ष में स्थिर (मादयासि) हर्ष आनन्द को प्राप्त करेगा ॥१८॥
भावार्थ - मनुष्य गृहस्थ से विरक्त होकर विद्वानों के सत्कार का पात्र बन जाता है और मृत्यु भी उसका मित्र बन जाता है, जो अपने विकराल स्वरूप को छोड़ देता है, पीड़ा नहीं पहुँचाता है, मोक्ष में स्थिर आनन्द को भोगता है, उसकी सन्तान अच्छा कर्म करते हुए संसार में उसके यश को स्थिर रखती हैं, यह गृहस्थ आश्रम का परम फल है ॥१८॥
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