ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 96/ मन्त्र 1
ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वैन्द्रः
देवता - हरिस्तुतिः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
प्र ते॑ म॒हे वि॒दथे॑ शंसिषं॒ हरी॒ प्र ते॑ वन्वे व॒नुषो॑ हर्य॒तं मद॑म् । घृ॒तं न यो हरि॑भि॒श्चारु॒ सेच॑त॒ आ त्वा॑ विशन्तु॒ हरि॑वर्पसं॒ गिर॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ते॒ । म॒हे । वि॒दथे॑ श॒म्सि॒ष॒म् । हरी॒ इति॑ । प्र । ते॒ । व॒न्वे॒ । व॒नुषः॑ । ह॒र्य॒तम् । मद॑म् । घृ॒तम् । न । यः । हरि॑ऽभिः । चारु॑ । सेच॑त । आ । त्वा॒ । वि॒श॒न्तु॒ । हरि॑ऽवर्पसम् । गिरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ते महे विदथे शंसिषं हरी प्र ते वन्वे वनुषो हर्यतं मदम् । घृतं न यो हरिभिश्चारु सेचत आ त्वा विशन्तु हरिवर्पसं गिर: ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । ते । महे । विदथे शम्सिषम् । हरी इति । प्र । ते । वन्वे । वनुषः । हर्यतम् । मदम् । घृतम् । न । यः । हरिऽभिः । चारु । सेचत । आ । त्वा । विशन्तु । हरिऽवर्पसम् । गिरः ॥ १०.९६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 96; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में हरि नाम से बहुत वस्तुओं की प्रशंसा है, परमात्मा के गुण उनके कृपा प्रसाद प्रशंसनीय हैं तथा उपासक उसके आनन्द को प्राप्त करते हैं, वह जगत् में व्यापक है, वेदज्ञान का उपदेश देता है, इत्यादि विषयों का वर्णन है।
पदार्थ -
(महे) महान्-महत्त्वपूर्ण (विदथे) वेदनीय-अनुभवनीय स्वरूप में अध्यात्म यज्ञ में (ते) हे परमात्मन् ! तेरे (हरी) अज्ञानदोष के अपहारक ज्ञान गुण आहारक कृपा और प्रसाद को (प्र शंसिषम्) प्रशंसित करता हूँ (ते वनुषः) तुझ सम्भजनीय के (हर्यतम्) कमनीय (मदम्) आनन्द को (प्र वन्वे) प्रकृष्ट रूप से माँगता हूँ (यः हरिभिः) जो मनुष्यों द्वारा उपासित परमात्मा है (घृतं न) जल के समान (चारु) चरणीय स्वानन्द रस को (सेचते) सींचता है (त्वा) तुझ (हरिवर्पसम्) मनोहर रूपवाले को (गिरः) स्तुतिवाणियाँ (आ विशन्तु) आविष्ट होवें, प्राप्त होवें ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा के महत्त्वपूर्ण अज्ञानदोषनाशक और ज्ञानगुणप्रसारक कृपाप्रसाद प्रशंसनीय हैं, जिनके द्वारा उसका कमनीय आनन्द याचनीय है, जिसे वह सींच देता है, जबकि स्तुतियाँ उसे प्राप्त होती हैं ॥१॥
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