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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
    सूक्त - काण्वः देवता - मही अथवा चन्द्रमाः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् सूक्तम् - कृमिजम्भन सूक्त

    अ॒ल्गण्डू॑न्हन्मि मह॒ता व॒धेन॑ दू॒ना अदू॑ना अर॒सा अ॑भूवन्। शि॒ष्टानशि॑ष्टा॒न्नि ति॑रामि वा॒चा यथा॒ क्रिमी॑णां॒ नकि॑रु॒च्छिषा॑तै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ल्गण्डू॑न् । ह॒न्मि॒ । म॒ह॒ता । व॒धेन॑ । दू॒ना: । अदू॑ना: । अ॒र॒सा: । अ॒भू॒व॒न् । शि॒ष्टान् । अशि॑ष्टान् । नि । ति॒रा॒मि॒ । वा॒चा । यथा॑ । क्रिमी॑णाम् । नकि॑: । उ॒त्ऽशिषा॑तै ॥३१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अल्गण्डून्हन्मि महता वधेन दूना अदूना अरसा अभूवन्। शिष्टानशिष्टान्नि तिरामि वाचा यथा क्रिमीणां नकिरुच्छिषातै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अल्गण्डून् । हन्मि । महता । वधेन । दूना: । अदूना: । अरसा: । अभूवन् । शिष्टान् । अशिष्टान् । नि । तिरामि । वाचा । यथा । क्रिमीणाम् । नकि: । उत्ऽशिषातै ॥३१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 31; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (अलगण्डून्) अति अधिक खाज़ उत्पन्न करने वाले ‘अलगण्डू’ नामक कीटों को (महता वधेन) बड़े विनाशक ओषधि से (हन्मि) विनाश करूं। वे सब कीट ओषधि से (दूनाः) जलभुन कर और (अदूनाः) या बिना जले ही सूख कर (अरसाः) बिना प्राण के (अभूवन्) हो जाते हैं। उन जन्तुओं में से मैं (शिष्टान्) शास्त्र में जिनके विशेष लक्षण कहे हैं उनको और (अशिष्टान्) उनके समान हानिकारक अन्यों को भी (वाचा) अपनी वाणी के बल से या वेदवाणी के किये उपदेश से (नि तिरामि) इस प्रकार जड़ मूल से विनाश करूं (यथा) जिससे (क्रिमीणां) फैलने वाले, रोगकारी कीटों में से (नकिः) कोई भी न (उत् शिषातै) बच पावें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कण्व ऋषिः। मही चन्द्रो वा देवता । १ अनुष्टुप् । २, ४ उपरिष्टाद् विराड् बृहती । ३ आर्षी त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सृक्तम्॥

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