अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 7/ मन्त्र 6
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विषनाशन सूक्त
प॒वस्तै॑स्त्वा॒ पर्य॑क्रीणन्दू॒र्शेभि॑र॒जिनै॑रु॒त। प्र॒क्रीर॑सि॒ त्वमो॑ष॒धेऽभ्रि॑खाते॒ न रू॑रुपः ॥
स्वर सहित पद पाठप॒वस्तै॑: । त्वा॒ । परि॑ । अ॒क्री॒ण॒न् । दू॒र्शेभि॑: । अ॒जिनै॑: । उ॒त । प्र॒ऽक्री: । अ॒सि॒ । त्वम् । ओ॒ष॒धे॒ । अभ्रि॑ऽखाते । न । रू॒रु॒प॒: ॥७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
पवस्तैस्त्वा पर्यक्रीणन्दूर्शेभिरजिनैरुत। प्रक्रीरसि त्वमोषधेऽभ्रिखाते न रूरुपः ॥
स्वर रहित पद पाठपवस्तै: । त्वा । परि । अक्रीणन् । दूर्शेभि: । अजिनै: । उत । प्रऽक्री: । असि । त्वम् । ओषधे । अभ्रिऽखाते । न । रूरुप: ॥७.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 6
विषय - विष चिकित्सा का उपदेश।
भावार्थ -
हे (अभ्रिखाते) कुदाल से खोदी गई ओषधी (त्वा) तुझ को (पवस्तैः) वस्त्रों या छाजों और (दूर्शेभिः) ऋक्ष या व्याघ्र-छालाओं (उत) और (अजिनैः) मृगछालाओं के बदले में (पर्यक्रीणन्) परस्पर बेचते खरीदते हैं। इसलिये तेरा नाम (प्रक्रीः) ‘प्रक्री’ भी है। तेरे प्रयोग से भी (न रूरूपः) विषार्त रोगी मूर्छा को प्राप्त नहीं होता।
‘प्रक्री’ औषधि का धन्वन्तरि राजनिघण्टु में, ‘प्रकीर्य’ नाम आया है। जिसके पांच भेद हैं करञ्ज, उदकीर्य, अंगारवल्ली, गुच्छकरंज, रीठाकरंज। ये भी विपनाशक एवं कुष्ठ, कण्डू और स्फोट तथा त्वचादोष के नाशक बतलाये गये हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गरुत्मान् ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १-३, ५-७ अनुष्टुभः, ४ स्वराट्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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