अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
अ॒क्षद्रु॑ग्धो राज॒न्यः॑ पा॒प आ॑त्मपराजि॒तः। स ब्रा॑ह्म॒णस्य॒ गाम॑द्याद॒द्य जी॒वानि॒ मा श्वः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒क्षऽद्रु॑ग्ध: । रा॒ज॒न्य᳡: । पा॒प: । आ॒त्म॒ऽप॒रा॒जि॒त: । स: । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । गाम् । अ॒द्या॒त् । अ॒द्य । जी॒वा॒नि॒ । श्व: ॥१८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षद्रुग्धो राजन्यः पाप आत्मपराजितः। स ब्राह्मणस्य गामद्यादद्य जीवानि मा श्वः ॥
स्वर रहित पद पाठअक्षऽद्रुग्ध: । राजन्य: । पाप: । आत्मऽपराजित: । स: । ब्राह्मणस्य । गाम् । अद्यात् । अद्य । जीवानि । श्व: ॥१८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
विषय - ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ -
जो राजा अपने विषय-सुखों के लिये प्रजा का नाश कर देता है वह चिरकाल तक नहीं रहता। (अक्ष-द्रुग्धः) इन्द्रियों के लोभ के कारण प्रजा में नाना प्रकार के द्रोह उत्पन्न करने वाला, (राजन्यः) राजा (आत्म-पराजितः) अपने ही व्यसनों से अपने आप पछाड़ खा लेता है। (स) वह (पापः) पापी यदि (ब्राह्मणस्य) ब्राह्मण = वेदवेत्ता की (गाम्) गौ, भूमि, प्रजा तक को (अद्यात्) खा डाले, विनाश करे तो (अद्य जीवानि) वह यह भी समझले कि ‘मैं आज भर ही जीता हूं, (न श्वः) कल को मेरा जीवन नहीं है।’ अर्थात् अत्याचारी का जीवन सदा खटके में रहता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। १-३, ६, ७, १०, १२, १४, १५ अनुष्टुभः। ४, ५, ८, ९, १३ त्रिष्टुभः। ४ भुरिक्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
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