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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - सोमः, वनस्पतिः
छन्दः - परोष्णिक्
सूक्तम् - जेताइन्द्र सूक्त
सु॒नोता॑ सोम॒पाव्ने॒ सोम॒मिन्द्रा॑य व॒ज्रिणे॑। युवा॒ जेतेशा॑नः॒ स पु॑रुष्टु॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒नो॑त । सो॒म॒ऽपाव्ने॑ । सोम॑म् । इन्दा॑य । व॒ज्रिणे॑ । युवा॑ । जेता॑ । ईशा॑न: । स: । पु॒रु॒ऽस्तु॒त: ॥२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सुनोता सोमपाव्ने सोममिन्द्राय वज्रिणे। युवा जेतेशानः स पुरुष्टुतः ॥
स्वर रहित पद पाठसुनोत । सोमऽपाव्ने । सोमम् । इन्दाय । वज्रिणे । युवा । जेता । ईशान: । स: । पुरुऽस्तुत: ॥२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
विषय - समाधि द्वारा ब्रह्मरस पान।
भावार्थ -
(सोम पाव्ने) सोम = ब्रह्मानन्द या योगाभ्यास रस का पान करने वाले (वज्रिणे) वज्र = अपवर्ग अर्थात् नाना भवबन्धन के काटने के साधनरूप ज्ञानखङ्ग को धारण करने वाले (इन्द्राय) इन्द्र, आत्मा के लिये (सोमं सुनोत) सोम का सेवन करो, अभ्यास-रस को प्राप्त करो। (सः) वही (युवा) सदा शक्तिमान्, अनुपम सुन्दर, अथवा सब विरोधी वर्गों का नाशक, (जेता) सब को विजय करने वाला, (पुरु-स्तुतः) नाना गुणों से स्तुति करने योग्य, (ईशानः) शरीर और इन्द्रियों का स्वामी है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। सोमो वनस्पतिर्देवता। १-३ परोष्णिहः। तृचं सुक्तम्॥
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