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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 37/ मन्त्र 3
यो नः॒ शपा॒दश॑पतः॒ शप॑तो॒ यश्च॑ नः॒ शपा॑त्। शुने॒ पेष्ट्र॑मि॒वाव॑क्षामं॒ तं प्रत्य॑स्यामि मृ॒त्यवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । न॒: । शपा॑त् । अश॑पत: । शप॑त: ।य: । च॒ । न॒: । शपा॑त् । शुने॑ । पेष्ट्र॑म्ऽइव । अव॑ऽक्षामम् । तम् । प्रति॑ । अ॒स्या॒मि॒ । मृ॒त्यवे॑ ॥३७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो नः शपादशपतः शपतो यश्च नः शपात्। शुने पेष्ट्रमिवावक्षामं तं प्रत्यस्यामि मृत्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठय: । न: । शपात् । अशपत: । शपत: ।य: । च । न: । शपात् । शुने । पेष्ट्रम्ऽइव । अवऽक्षामम् । तम् । प्रति । अस्यामि । मृत्यवे ॥३७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 37; मन्त्र » 3
विषय - कठोर भाषण से बचना
भावार्थ -
(नः) हममें से (यः) जो (अशपतः) गाली या कठोर वचन न कहते हुओं के प्रति (शपात्) कठोर वचन कहता है या (यः च) जो (शपतः नः) कठोर वचन कहते हुओं के भी प्रति (शपात्) कठोर वचन कहता है (तं) उस पुरुष को (शुनः) कुत्ते की (अवक्षामम्) सूखी (पेष्टू इब) रोटी के समान (मृत्यवे) मौत के आगे (प्रत्यस्यामि) डाल दूं।
कठोर वचन या गाली देते हुए पुरुष के प्रति मनुष्य अपनी प्रबल इच्छा-शक्ति का इसी प्रकार प्रयोग करे और विचारे कि कठोर वक्ता के कठोर वचन स्वयं उसी को दण्ड देते हैं उसके दिल को कष्ट पहुँचाते हैं हम पर उसका प्रभाव न पड़े जैसे कि आग का पानी के तालाब पर नहीं पड़ता। वह अपने कठोर वचनों से बिजली से मरे वृक्ष के समान भीतर भीतर जलता रहता है और जो व्यर्थ हम पर जले और बके या उसे समझाने के लिए हमारे कुछ कठोर कहने पर पागल होकर हम पर बके झके तो उसको तुच्छ सा जानकर अपनी मौत मरने देना चाहिए स्वयं उस पर हाथ न चलाना चाहिए।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - स्वस्त्ययनकामोऽथर्वा ऋषिः। चन्द्रमा देवता। अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
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