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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 82/ मन्त्र 1
आ॒गच्छ॑त॒ आग॑तस्य॒ नाम॑ गृह्णाम्याय॒तः। इन्द्र॑स्य वृत्र॒घ्नो व॑न्वे वास॒वस्य॑ श॒तक्र॑तोः ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽगच्छ॑त: । आऽग॑तस्य । नाम॑ । गृ॒ह्णा॒मि॒ । आ॒ऽय॒त: । इन्द्र॑स्य । वृ॒त्र॒ऽघ्न: । व॒न्वे॒ । वा॒स॒वस्य॑ । श॒तऽक्र॑तो:॥८२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आगच्छत आगतस्य नाम गृह्णाम्यायतः। इन्द्रस्य वृत्रघ्नो वन्वे वासवस्य शतक्रतोः ॥
स्वर रहित पद पाठआऽगच्छत: । आऽगतस्य । नाम । गृह्णामि । आऽयत: । इन्द्रस्य । वृत्रऽघ्न: । वन्वे । वासवस्य । शतऽक्रतो:॥८२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 82; मन्त्र » 1
विषय - वर-वरण का उपदेश।
भावार्थ -
विवाह करने वाले वर का स्वागत करने का उपदेश करते हैं। हे विद्वान्, योग्य पुरुषो ! (आ गच्छतः) आते हुए (आ गतस्य) या कन्या को प्राप्त करने के लिये द्वार पर आये हुए वर के (नाम) नाम को (गृह्णामि) मैं लेता हूँ, स्पष्ट रूप से सबके सामने उच्चारण करता हूं जिससे आप लोग सब जान जायँ कि मैं अपनी कन्या का विवाह कितने उत्तम पुरुष से कर रहा हूं। और (आयतः) आये हुए (वृत्रघ्न्नः) विघ्नों के नाशक, (वासवस्य) धन, ऐश्वर्य के स्वामी (शतक्रतोः) सैकड़ों प्रज्ञाओं और कर्मों के साधक, विद्वान्, क्रियाशील (इन्द्रस्य) इन्द्र अर्थात् राजा के समान प्रतिष्ठाशील पुरुष को अपनी कन्या के लिये (वन्वे) वरता हूं, स्वीकार करता हूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - जायाकामो भग ऋषिः। इन्द्रो देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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