ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 14/ मन्त्र 12
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यु॒क्ष्वा ह्यरु॑षी॒ रथे॑ ह॒रितो॑ देव रो॒हितः॑। ताभि॑र्दे॒वाँ इ॒हा व॑ह॥
स्वर सहित पद पाठयु॒क्ष्व । हि । अरु॑षीः । रथे॑ । ह॒रितः॑ । दे॒व॒ । रो॒हितः॑ । ताभिः॑ । दे॒वान् । इ॒ह । आ । व॒ह॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युक्ष्वा ह्यरुषी रथे हरितो देव रोहितः। ताभिर्देवाँ इहा वह॥
स्वर रहित पद पाठयुक्ष्व। हि। अरुषीः। रथे। हरितः। देव। रोहितः। ताभिः। देवान्। इह। आ। वह॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 14; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
विषय - सुख प्राप्ति, पक्षान्तर में राजा का वर्णन ।
भावार्थ -
हे ( देव ) देदीप्यमान, तेजस्विन् ! सूर्य के समान चमकने वाले ! विद्वन् ! तू ( रथे ) रमण करने योग्य रथ में ( अरुषीः ) रक्त गुण वाली, गमनशील, एक कान्तियुक्त (हरितः) हरणशील शक्तियों को (युक्ष्व) संयोजित कर ( ताभिः ) उनसे ( इह ) लोक में ( देवान् ) कामना योग्य सुखकारी पदार्थों और व्यवहारों को ( आवह ) प्राप्त करा । भौतिक अग्नि की ज्वालाएं या ( हरितः ) गतियुक्त शक्तियां ( अरुषीः ) रक्तवर्ण की क्रान्ति वाली हैं और ( रोहितः ) रोहितअर्थात् ईषत् रक्त जिनसे वह ‘देवों’ अर्थात् किरणों को दूर तक पहुंचाता है । इति सप्तविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १–१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः । विश्वे देवा देवताः । गायत्री द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
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