ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 146/ मन्त्र 5
दि॒दृ॒क्षेण्य॒: परि॒ काष्ठा॑सु॒ जेन्य॑ ई॒ळेन्यो॑ म॒हो अर्भा॑य जी॒वसे॑। पु॒रु॒त्रा यदभ॑व॒त्सूरहै॑भ्यो॒ गर्भे॑भ्यो म॒घवा॑ वि॒श्वद॑र्शतः ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒दृ॒क्षेण्यः॑ । परि॑ । काष्ठा॑सु । जेन्यः॑ । ई॒ळेन्यः॑ । म॒हः । अर्भा॑य । जी॒वसे॑ । पु॒रु॒ऽत्रा । यत् । अभ॑वत् । सूः । अह॑ । ए॒भ्यः॒ । गर्भे॑भ्यः । म॒घऽवा॑ । वि॒श्वऽद॑र्शतः ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिदृक्षेण्य: परि काष्ठासु जेन्य ईळेन्यो महो अर्भाय जीवसे। पुरुत्रा यदभवत्सूरहैभ्यो गर्भेभ्यो मघवा विश्वदर्शतः ॥
स्वर रहित पद पाठदिदृक्षेण्यः। परि। काष्ठासु। जेन्यः। ईळेन्यः। महः। अर्भाय। जीवसे। पुरुऽत्रा। यत्। अभवत्। सूः। अह। एभ्यः। गर्भेभ्यः। मघऽवा। विश्वऽदर्शतः ॥ १.१४६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 146; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
विषय - दर्शनीय शिष्य ।
भावार्थ -
शिष्य विद्याभ्यास करने के उपरान्त ( काष्ठासु ) समस्त दिशाओं में ( दिदृक्षेण्यः ) सब लोगों के देखने के योग्य होता है । वह ( जेन्यः ) सर्वत्र विजयी, और सब के समान गुणों और कर्मों से प्रकट होने वाला, ( ईळेन्यः ) स्तुति और सत्कार के योग्य ( महः अर्भाय जीवसे ) छोटे और बड़े सबको जीवन देने वाला हो । वह ( मघवा ) ऐश्वर्यवान् और ( विश्वदर्शतः ) सब प्रकार से और सब के लिये दर्शनीय होकर (यद्) जो (पुरुत्रा) सर्वत्र, या बहुतों को ग्राण करने हारा (एभ्यः गर्भेभ्यः ) इन गर्भो में उत्पन्न छोटे छोटे बच्चों का ( सूः ) उत्पादक और स्तुति योग्य विद्वान् पुरुषों से स्वतः उत्पन्न होने वाला ( अभवत् ) हो जाता है । इति पञ्चदशो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २ विराट् त्रिष्टुप । ३, ५ त्रिष्टुप् । ४ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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