ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 185/ मन्त्र 2
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
भूरिं॒ द्वे अच॑रन्ती॒ चर॑न्तं प॒द्वन्तं॒ गर्भ॑म॒पदी॑ दधाते। नित्यं॒ न सू॒नुं पि॒त्रोरु॒पस्थे॒ द्यावा॒ रक्ष॑तं पृथिवी नो॒ अभ्वा॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठभूरि॑ । द्वे इति॑ । अच॑रन्ती॒ इति॑ । चर॑न्तम् । प॒त्ऽवन्तम् । गर्भ॑म् । अ॒पदी॒ इति॑ । द॒धा॒ते॒ इति॑ । नित्य॑म् । न । सू॒नुम् । पि॒त्रोः । उ॒पऽस्थे॑ । द्यावा॑ । रक्ष॑तम् । पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । नः॒ । अभ्वा॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
भूरिं द्वे अचरन्ती चरन्तं पद्वन्तं गर्भमपदी दधाते। नित्यं न सूनुं पित्रोरुपस्थे द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात् ॥
स्वर रहित पद पाठभूरिम्। द्वे इति। अचरन्ती इति। चरन्तम्। पत्ऽवन्तम्। गर्भम्। अपदी इति। दधाते इति। नित्यम्। न। सूनुम्। पित्रोः। उपऽस्थे। द्यावा। रक्षतम्। पृथिवी इति। नः। अभ्वात् ॥ १.१८५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 185; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
विषय - द्यावापृथिवी रूप से माता पिता के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ -
जिस प्रकार (द्वे) दोनों (अचरन्ती) विचलित न होते हुए (अपदी) स्वयं पादों से रहित स्थावर होकर भी सूर्य पृथ्वी दोनों (चरन्तं) विचरणशील जंगम, (पद्वन्तं) ज्ञान साधनों या चरणों से युक्त जीव संसार को (गर्भम्) अपने भीतर ( दधाते ) धारण करते हैं उसी प्रकार (द्वे) दोनों माता पिता भी (अचरन्ती) अधर्म पथ पर न चलते हुए और धर्म मार्ग या गृहस्थ में स्थिर रहते हुए (अपदी) स्वयं विशेष पद या महत्वाकांक्षा या सुखों से रहित होकर भी (चरन्तं) स्पन्दनशील (पद्वन्तं) विशेष चेतना युक्त चरणों से युक्त (गर्भम्) गर्म को (दधाते) धारते हैं । और ( पित्रोः ) माता पिताओं के (उपस्थे) गोद में ( सूनुं न ) पुत्र के समान ही पृथिवी और आकाश दोनों ( नित्यं ) स्थायी ( सूनुं ) सर्वप्रेरक सूर्य को धारण करते हैं । वे दोनों आकाश और पृथ्वी, उनके समान माता और पिता दोनों (नः) हमें ( अभ्वात् ) असत्याचरण से उत्पन्न दुःख तथा (अभ्वात्) असामर्थ्य, उत्तम योनि में और उत्तम संस्कारों के न उत्पन्न होने आदि बुरे भाग्य से ( रक्षतम् ) हमें बचावें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अगस्त्य ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्दः- १, ६, ७, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
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