ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 185/ मन्त्र 1
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
क॒त॒रा पूर्वा॑ कत॒राप॑रा॒योः क॒था जा॒ते क॑वय॒: को वि वे॑द। विश्वं॒ त्मना॑ बिभृतो॒ यद्ध॒ नाम॒ वि व॑र्तेते॒ अह॑नी च॒क्रिये॑व ॥
स्वर सहित पद पाठक॒त॒रा । पूर्वा॑ । क॒त॒रा । अप॑रा । अ॒योः । क॒था । जा॒ते इति॑ । क॒व॒यः॒ । कः । वि । वे॒द॒ । विश्व॑म् । त्मना॑ । बि॒भृ॒तः॒ । यत् । ह॒ । नाम॑ । वि । व॒र्ते॒ते॒ । अह॑नी॒ इति॑ । च॒क्रिया॑ऽइव ॥
स्वर रहित मन्त्र
कतरा पूर्वा कतरापरायोः कथा जाते कवय: को वि वेद। विश्वं त्मना बिभृतो यद्ध नाम वि वर्तेते अहनी चक्रियेव ॥
स्वर रहित पद पाठकतरा। पूर्वा। कतरा। अपरा। अयोः। कथा। जाते इति। कवयः। कः। वि। वेद। विश्वम्। त्मना। बिभृतः। यत्। ह। नाम। वि। वर्तेते। अहनी इति। चक्रियाऽइव ॥ १.१८५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 185; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
विषय - द्यावापृथिवी रूप से माता पिता के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ -
द्यावा पृथ्वी रूप से माता पिता के कर्त्तव्यों का वर्णन। (अयोः) माता और पिता इन दोनों में से ( कतरा पूर्वा ) पहले कौन उत्पन्न हुई और ( कतरा अपरा) बाद में कौन उत्पन्न हुई अथवा (पूर्वा कतरा और अपरा कतरा ) मुख्य कौन और गौण कौन ? या पहले मातृ रूप या जनक रूप से कौन और ‘अपर’ अर्थात् पीछे कार्य रूप से कौन है ? और यह भी बतलाओ कि ( कथा जाते ) वें दोनों क्यों, किस प्रयोजन से उत्पन्न हुए हैं ? हे ( कवयः ) दीर्घदर्शी विद्वान् पुरुषो ! आप लोग बतलावें कि इस तत्व का रहस्य ( कः विवेद ) कौन भली प्रकार से जानता है यह तत्व किसने साक्षात् किया है, वस्तुतः ये दोनों ही स्त्री पुरुष माता और पिता (त्मना) स्वयं अपने आप अपने देह से और अपनी आत्मा से (विश्वं) सब जगत् को या समस्त ‘विश्व’ अर्थात् जीवमात्र को (बिभृतः) विविध प्रकार से धारण पोषण करते हैं। और जिस प्रकार सूर्य और पृथ्वी (त्मना विश्वं नाम बिभृतः) अपने सामर्थ्य से समस्त जल को धारण करती हैं उसी प्रकार, (अहनी ) रात और दिन के समान और ( चक्रिया-इव ) रथ के दो पहियों के समान ( वि वर्त्तेते ) विविध प्रकार से वर्त्तते हैं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अगस्त्य ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्दः- १, ६, ७, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
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