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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 119 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 119/ मन्त्र 1
    ऋषिः - लबः ऐन्द्रः देवता - आत्मस्तुतिः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इति॒ वा इति॑ मे॒ मनो॒ गामश्वं॑ सनुया॒मिति॑ । कु॒वित्सोम॒स्यापा॒मिति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इति॑ । वै । इति॑ । मे॒ । मनः॑ । गाम् । अश्व॑म् । स॒नु॒या॒म् । इति॑ । कु॒वित् । सोम॑स्य । अपा॑म् । इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इति वा इति मे मनो गामश्वं सनुयामिति । कुवित्सोमस्यापामिति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इति । वै । इति । मे । मनः । गाम् । अश्वम् । सनुयाम् । इति । कुवित् । सोमस्य । अपाम् । इति ॥ १०.११९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 119; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (सोमस्य कु-वित्) सोम, ऐश्वर्य, वीर्य, धनादि को बहुत बहुत, (अपाम्) मैंने सुरक्षित किया, उसका बहुत २ उपयोग किया। यज्ञ में अनेक बार सोम ओषधिरस का पान किया, योगादि द्वारा अध्यात्म में—अनेक बार मैंने अपने आत्मा का आनन्द-स्वरूप प्राप्त किया (इति वा इति) यह इस २ प्रकार से (मे मनः) मेरा चित्त होता है कि (गाम् अश्वं सनुयाम्) मैं अर्थियों को गौ और अश्व दूं। मैं उस प्रभु को लक्ष्य कर वाणी और अपने भोक्ता आत्मा तक को उसके अर्पण कर दूं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्लब ऐन्द्रः। देवता—आत्मस्तुतिः॥ छन्दः—१–५, ७—१० गायत्री। ६, १२, १३ निचृद्गायत्री॥ ११ विराड् गायत्री।

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