ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 119/ मन्त्र 2
प्र वाता॑ इव॒ दोध॑त॒ उन्मा॑ पी॒ता अ॑यंसत । कु॒वित्सोम॒स्यापा॒मिति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वाताः॑ऽइव । दोध॑तः । उत् । मा॒ । पी॒ताः । अ॒यं॒स॒त॒ । कु॒वित् । सोम॑स्य । अपा॑म् । इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वाता इव दोधत उन्मा पीता अयंसत । कुवित्सोमस्यापामिति ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । वाताःऽइव । दोधतः । उत् । मा । पीताः । अयंसत । कुवित् । सोमस्य । अपाम् । इति ॥ १०.११९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 119; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
विषय - सोमपान अर्थात् आत्मानन्द रस, ऐश्वर्य, ज्ञान आदि की प्राप्ति, आत्मा की शक्ति का उद्रेक।
भावार्थ -
(कुवित् सोमस्य अपाम्) मैंने सोम रस, ऐश्वर्य, ज्ञान, आत्मानन्द का खूब २ पान किया। (इति) इसी कारण वे (पीताः) पान किये गये रस (वाताः इव) प्रबल वायुओं के झकोरों के समान (दोधतः) कंपाते हुए (मा उत् अयंसत) मुझ को उद्यमशील करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्लब ऐन्द्रः। देवता—आत्मस्तुतिः॥ छन्दः—१–५, ७—१० गायत्री। ६, १२, १३ निचृद्गायत्री॥ ११ विराड् गायत्री।
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