ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 127/ मन्त्र 2
ऋषिः - कुशिकः सौभरो, रात्रिर्वा भारद्वाजी
देवता - रात्रिस्तवः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
ओर्व॑प्रा॒ अम॑र्त्या नि॒वतो॑ दे॒व्यु१॒॑द्वत॑: । ज्योति॑षा बाधते॒ तम॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । उ॒रु । अ॒प्राः॒ । अम॑र्त्या । नि॒ऽवतः॑ । दे॒वी । उ॒त्ऽवतः॑ । ज्योति॑षा । बा॒ध॒ते॒ । तमः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ओर्वप्रा अमर्त्या निवतो देव्यु१द्वत: । ज्योतिषा बाधते तम: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । उरु । अप्राः । अमर्त्या । निऽवतः । देवी । उत्ऽवतः । ज्योतिषा । बाधते । तमः ॥ १०.१२७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 127; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
विषय - रात्रि के दृष्टान्त से जगत्-शासिका प्रभुशक्ति का वर्णन।
भावार्थ -
वह (अमर्त्या) मरणधर्मा जीवों में असाधारण, कभी नाश न होने वाली (देवी) सब सुखों के देने वाली, स्वप्रकाशरूप ज्ञानों का प्रकाश करने वाली, (निवतः उद्वतः) नीचे और ऊंचे समस्त प्रदेशों वा भूमियों को (उरु आ अप्राः) खूब प्रकाश से पूर्ण करती है और (ज्योतिषा) तेज से (तमः बाधते) अन्धकार को नाश करती है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः कुशिकः सौभरोः रात्रिर्वा भारद्वाजी। देवता—रात्रिस्तवः॥ छन्द:—१, ३, ६ विराड् गायत्री। पादनिचृद् गायत्री। ४, ५, ८ गायत्री। ७ निचृद् गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
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