ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 127/ मन्त्र 1
ऋषिः - कुशिकः सौभरो, रात्रिर्वा भारद्वाजी
देवता - रात्रिस्तवः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
रात्री॒ व्य॑ख्यदाय॒ती पु॑रु॒त्रा दे॒व्य१॒॑क्षभि॑: । विश्वा॒ अधि॒ श्रियो॑ऽधित ॥
स्वर सहित पद पाठरात्री॑ । वि । अ॒ख्य॒त् । आ॒ऽय॒ती । पु॒रु॒ऽत्रा । दे॒वी । अ॒क्षऽभिः॑ । विश्वाः॑ । अधि॑ । श्रियः॑ । अ॒धि॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्य१क्षभि: । विश्वा अधि श्रियोऽधित ॥
स्वर रहित पद पाठरात्री । वि । अख्यत् । आऽयती । पुरुऽत्रा । देवी । अक्षऽभिः । विश्वाः । अधि । श्रियः । अधित ॥ १०.१२७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 127; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
विषय - रात्रिस्तव।
भावार्थ -
(रात्री देवी) रात्री के तुल्य अनेक सुखों को देने वाली, शुभ गुणों का प्रकाश करने वाली देवी, (आयती) आती हुई प्राप्त होती हुई, (पुरु-त्रा) अनेकों का पालन करने वाली, (वि अख्यत्) विविध प्रकार से संसार को देखती या प्रकाशित करती है। वह (अक्षभिः) अध्यक्षों द्वारा, व्यापक शक्तियों या तेजों से (विश्वाः श्रियः अधित) समस्त शोभाओं और सम्पदाओं को धारण करती है। वह प्रभुशक्ति गृहपत्नी के तुल्य, संसार का शासन करती है। रात्रि पक्ष में—रात्रि समस्त नक्षत्रादि को धारण करती है और नक्षत्र रूप अनेक आंखों से मानो देख रही है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः कुशिकः सौभरोः रात्रिर्वा भारद्वाजी। देवता—रात्रिस्तवः॥ छन्द:—१, ३, ६ विराड् गायत्री। पादनिचृद् गायत्री। ४, ५, ८ गायत्री। ७ निचृद् गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
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