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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 177/ मन्त्र 1
प॒तं॒गम॒क्तमसु॑रस्य मा॒यया॑ हृ॒दा प॑श्यन्ति॒ मन॑सा विप॒श्चित॑: । स॒मु॒द्रे अ॒न्तः क॒वयो॒ वि च॑क्षते॒ मरी॑चीनां प॒दमि॑च्छन्ति वे॒धस॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप॒त॒ङ्गम् । अ॒क्तम् । असु॑रस्य । मा॒यया॑ । हृ॒दा । प॒श्य॒न्ति॒ । मन॑सा । वि॒पः॒ऽचितः॑ । स॒मु॒द्रे । अ॒न्तरिति॑ । क॒वयः॑ । वि । च॒क्ष॒ते॒ । मरी॑चीनाम् प॒दम् इ॑च्छन्ति वे॒धसः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पतंगमक्तमसुरस्य मायया हृदा पश्यन्ति मनसा विपश्चित: । समुद्रे अन्तः कवयो वि चक्षते मरीचीनां पदमिच्छन्ति वेधस: ॥
स्वर रहित पद पाठपतङ्गम् । अक्तम् । असुरस्य । मायया । हृदा । पश्यन्ति । मनसा । विपःऽचितः । समुद्रे । अन्तरिति । कवयः । वि । चक्षते । मरीचीनाम् पदम् इच्छन्ति वेधसः ॥ १०.१७७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 177; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
विषय - माया-भेद। जगन्निर्मात्री शक्ति से व्यक्त हुए परमेश्वर के स्वरूप का साक्षात्कार।
भावार्थ -
(विपश्चितः) ज्ञान और कर्म का संचय करने वाले ज्ञानी हुए पुरुष, (हृदा मनसां) अपने हृदय से और संकल्प विकल्प करने वाले ज्ञानमय अन्तःकरण से ही (असुरस्य) जगत् के संञ्चालक, प्राणों के दाता, प्रभु और प्राणों में रमने वाले असुर, जीव के (मायया अक्तम्) जगत् निर्माण-शक्ति, प्रकृति से वा बुद्धि से (अक्तं) व्यक्त, (पतङ्गम्) ऐश्वर्य रूप से व्यापक, वा देह से देहान्तर जाने वाले आत्म-रूप को (पश्यन्ति) साक्षात् करते हैं। वे (कवयः) क्रान्तदर्शी विद्वान् जन (समुद्रे अन्तः) जिस में समस्त संसार के पदार्थ निकलते और जिसमें पुनः सब समुद्र में नदियों के तुल्य चले जाते हैं उसी महान् आत्मा के बीच में ही (वि चक्षते) विशेष रूप से आत्मा का साक्षात् करते हैं। और वे (मरीचीनां) किरणों के (वेधसः) विधाता, सूर्य के तुल्य उस जगद्विधाता के ही (पदम्) परम प्राप्तव्य पद को (इच्छन्ति) चाहते और उसी का वर्णन करते हैं। अथवा (वेधसः) विद्वान् जन उसी प्रभु को (मरीचीनां पदम्) किरणों के आश्रय सूर्यवत् (मरीचीनाम्) प्रकृति के सूक्ष्म तेजोमय परमाणुओं का परमाश्रय बतलाते हैं।
टिप्पणी -
‘मरीचि’ के लिये देखो ऐतरेय उपनिषत् – अम्भो मरीचिर्मरमापः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः पतङ्गः प्राजापत्यः॥ देवता—मायाभेदः॥ छन्द:- १ जगती। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
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