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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 18/ मन्त्र 14
    ऋषिः - सङ्कुसुको यामायनः देवता - पितृमेधः प्रजापतिर्वा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    प्र॒ती॒चीने॒ मामह॒नीष्वा॑: प॒र्णमि॒वा द॑धुः । प्र॒तीची॑ध जग्रभा॒ वाच॒मश्वं॑ रश॒नया॑ यथा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ती॒चीने॑ । माम् । अह॑नि । इष्वाः॑ । प॒र्णम्ऽइ॑व । आ । द॒धुः॒ । प्र॒तीची॑म् । ज॒ग्र॒भ॒ । वाच॑म् । अश्व॑म् । र॒श॒नया॑ । य॒था॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रतीचीने मामहनीष्वा: पर्णमिवा दधुः । प्रतीचीध जग्रभा वाचमश्वं रशनया यथा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रतीचीने । माम् । अहनि । इष्वाः । पर्णम्ऽइव । आ । दधुः । प्रतीचीम् । जग्रभ । वाचम् । अश्वम् । रशनया । यथा ॥ १०.१८.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 18; मन्त्र » 14
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    विद्वान् लोग (इष्वाः पर्णम् इव) बाण के मूल में उसके वेग को तीव्र करने के लिये जिस प्रकार ‘पर्ण’ पांख लगाते हैं उसी प्रकार वे (प्रतीचीने अहनि) किसी सर्वपूज्य दिन (माम्) मुझ को (इष्वाः) शत्रु के प्रति ठीक मार्ग में चलाने योग्य सेना वा प्रजा के पीठ पर (पर्णम्) पालक, संचालक रूप से (आ दधुः) स्थापित करें। और मैं (प्रतीचीं वाचम्) प्रजा वा सेना द्वारा आदर से ग्रहण करने योग्य वाणी रूप आज्ञा को (जग्रभ) उस आज्ञा द्वारा प्रजा वा सेना को अपने ऐसे वश करूं (यथा रशनया अश्वं) जैसे रास या रस्सी से घोड़े को वश किया जाता है। इत्यष्टाविंशो वर्गः॥ इति षष्ठोऽध्यायः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सङ्कुसुको यामायन ऋषिः॥ देवताः–१–मृत्युः ५ धाता। ३ त्वष्टा। ७—१३ पितृमेधः प्रजापतिर्वा॥ छन्द:- १, ५, ७–९ निचृत् त्रिष्टुप्। २—४, ६, १२, १३ त्रिष्टुप्। १० भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् पंक्तिः। १४ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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