ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 43/ मन्त्र 1
अच्छा॑ म॒ इन्द्रं॑ म॒तय॑: स्व॒र्विद॑: स॒ध्रीची॒र्विश्वा॑ उश॒तीर॑नूषत । परि॑ ष्वजन्ते॒ जन॑यो॒ यथा॒ पतिं॒ मर्यं॒ न शु॒न्ध्युं म॒घवा॑नमू॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअच्छ॑ । मे॒ । इन्द्र॑म् । म॒तयः॑ । स्वः॒ऽविदः॑ । स॒ध्रीचीः॑ । विश्वाः॑ । उ॒श॒तीः । अ॒नू॒ष॒त॒ । परि॑ । स्व॒ज॒न्ते॒ । जन॑यः । यथा॑ । पति॑म् । मर्य॑म् । न । शु॒न्ध्युम् । म॒घऽवा॑नम् । ऊ॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छा म इन्द्रं मतय: स्वर्विद: सध्रीचीर्विश्वा उशतीरनूषत । परि ष्वजन्ते जनयो यथा पतिं मर्यं न शुन्ध्युं मघवानमूतये ॥
स्वर रहित पद पाठअच्छ । मे । इन्द्रम् । मतयः । स्वःऽविदः । सध्रीचीः । विश्वाः । उशतीः । अनूषत । परि । स्वजन्ते । जनयः । यथा । पतिम् । मर्यम् । न । शुन्ध्युम् । मघऽवानम् । ऊतये ॥ १०.४३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 43; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
विषय - इन्द्र। पति को स्त्रियों के तुल्य प्रभु को स्तुतियां प्राप्त हों। समस्त स्तुतियों का एक मात्र लक्ष्य प्रभु है।
भावार्थ -
(मे) मेरी (स्व:-विदः) सुखजनक, सब इष्ट लाभों को देने वाली, ज्ञान-प्रकाशप्रद, (सध्रीचीः) परस्पर सुसम्बद्ध, (विश्वाः) सब प्रकार की, (उशतीः) प्रभु को चाहने वाली (मतयः) बुद्धियां और वाणियां (इन्द्रम् अच्छ अनूषत) उसी प्रभु की खूब २ स्तुति करती हैं। (यथा जनयः पतिं मर्यं ऊतये) जिस प्रकार स्त्रियें अपने २ पुरुषों, पतियों को रक्षा, प्रेम, सुख समृद्धि के लिये (परि ष्वजन्ते) आलिंगन करती हैं उसी प्रकार (शुन्ध्युं मघवानम्) परम पावन, शुद्ध, ऐश्वर्यवान् प्रभु को ये वाणियां (ऊतये) रक्षा के लिये (परि ष्वजन्ते) प्राप्त करती हैं। वे उसी से सम्बद्ध हैं, उसी तक जाती हैं, श्लेष वृत्ति से उसी का वर्णन करती हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः कृष्णः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ९ निचृज्जगती। २ आर्ची स्वराड् जगती। ३, ६ जगती। ४, ५, ८ विराड् जगती। १० विराट् त्रिष्टुप्। ११ त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
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