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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 1
    ऋषिः - पुरूरवा ऐळः देवता - उर्वशी छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ह॒ये जाये॒ मन॑सा॒ तिष्ठ॑ घोरे॒ वचां॑सि मि॒श्रा कृ॑णवावहै॒ नु । न नौ॒ मन्त्रा॒ अनु॑दितास ए॒ते मय॑स्कर॒न्पर॑तरे च॒नाह॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह॒ये । जाये॑ । मन॑सा । तिष्ठ॑ । घोरे॑ । वचां॑सि । मि॒श्रा । कृ॒ण॒वा॒व॒है॒ । नु । न । नौ॒ । मन्त्राः॑ । अनु॑दितासः । ए॒ते । मयः॑ । क॒र॒न् । पर॑ऽतरे । च॒न । अह॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्रा कृणवावहै नु । न नौ मन्त्रा अनुदितास एते मयस्करन्परतरे चनाहन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हये । जाये । मनसा । तिष्ठ । घोरे । वचांसि । मिश्रा । कृणवावहै । नु । न । नौ । मन्त्राः । अनुदितासः । एते । मयः । करन् । परऽतरे । चन । अहन् ॥ १०.९५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    सेना, सेनापति, प्रजा और राजा का पति पत्नीवत् परस्पर संवाद। हे (हये) ‘हया’ अर्थात् अश्व के समान सर्वाङ्ग में बलवति ! (जाये) पुत्रोत्पन्न करने में समर्थ स्त्री के तुल्य अपने पालक नायक को अपने आप अपने बल पराक्रम से प्रसिद्ध करने वाली, वा (जाये) जय दिलाने वाली ! हे (घोरे) घोर, दुष्कर संग्राम करने हारी ! शत्रुसंहारकारिणि ! तू (मनसा) ज्ञानसहित वा शत्रु स्तम्भक बल के साथ (तिष्ठ) स्थिर हो। हम दोनों (मिश्रा) परस्पर मिले हुए, दृढ़ सम्बन्ध बना रखने वाले (वचांसि) परस्पर प्रतिज्ञा-वचनों को (कृणवावहै नु) करें। क्या (नौ) हम दोनों के (एते) ये (अनु-दितासः मन्त्राः) परस्पर अनुकूलता से सुरक्षित, परस्पर किये मन्त्र, विचार (परतरे चन अहनि) भविष्य के दिनों भी (मयः चन न करन्) सुख प्रदान नहीं कर सकते ? करते ही हैं। जैसे स्त्री पुरुषों के परस्पर रहस्यालाप चिरकाल तक उनको सुखी, सुप्रसन्न बनाये रखते हैं उसी प्रकार सेना सेनापति आदि के भी गुप्त सुविचारित मन्त्र भविष्य में उनको सुखी करते हैं, वाक्य के आदि में ‘न’कार का प्रयोग प्रश्न-वाक्य का सूचक है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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