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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 2
    ऋषिः - उर्वशी देवता - पुरुरवा ऐळः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    किमे॒ता वा॒चा कृ॑णवा॒ तवा॒हं प्राक्र॑मिषमु॒षसा॑मग्रि॒येव॑ । पुरू॑रव॒: पुन॒रस्तं॒ परे॑हि दुराप॒ना वात॑ इवा॒हम॑स्मि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किम् । ए॒ता । वा॒चा । कृ॒ण॒व॒ । तव॑ । अ॒हम् । प्र । अ॒क्र॒मि॒ष॒म् । उ॒षसा॑म् । अ॒ग्रि॒याऽइ॑व । पुरू॑रवः । पुनः॑ । अस्त॑म् । परा॑ । इ॒हि॒ । दुः॒ऽआ॒प॒ना । वातः॑ऽइव । अ॒हम् । अ॒स्मि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किमेता वाचा कृणवा तवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव । पुरूरव: पुनरस्तं परेहि दुरापना वात इवाहमस्मि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    किम् । एता । वाचा । कृणव । तव । अहम् । प्र । अक्रमिषम् । उषसाम् । अग्रियाऽइव । पुरूरवः । पुनः । अस्तम् । परा । इहि । दुःऽआपना । वातःऽइव । अहम् । अस्मि ॥ १०.९५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (उषसाम् अग्रिया-इव) प्रभात वेलाओं में सर्वश्रेष्ठ उषा जिस प्रकार सूर्य के आगे आगे चलती है और (उषसाम् अग्रिया-इव) कामना वाली स्त्रियों में श्रेष्ठ वर वर्णिनी जिस प्रकार पति के आगे २ चलती हुई अग्नि-परिक्रमा करती है, इसी प्रकार सेना, (उपासम् अग्रिया) शत्रु को दग्ध करने वाली सेनाओं में सर्वश्रेष्ठ, सब से आगे चलने वाली होकर (प्र अक्रमिषम्) तेरे आगे चलूं, तू रक्षक, पालक गोपालवत् मेरे पीछे चल, और मैं आगे २ पराक्रम करती हुई पतिंवरा के तुल्य भागे कदम बढ़ाती जाऊं। तो (एता वाचा) इस वाणी से (किं कृणव) हम दोनों क्या करेंगे ? हे (पुरूरवः) अनेक सैन्यदल के प्रति आज्ञा करने वाले सेनापति ! (अहम् वातः इव) मैं प्रबल वात के समान ही (दुरापना अस्मि) शत्रु के वश आने वाली नहीं हूं। प्रत्युत (दुर्-आपना अस्मि) प्रबल आंधी के समान शत्रु को नाना दुःख प्राप्त कराने वाली हूँ। तू मुझ द्वारा विजय करके (पुनः अस्तम् परा इहि) अनन्तर घर को लौटना। इसी प्रकार स्त्री परिक्रमादि करने के बाद पति को स्वयं गृह में जाने की प्ररेणा करे। यह सब से उत्तम विदाई है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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