ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
जो॒हूत्रो॑ अ॒ग्निः प्र॑थ॒मः पि॒तेवे॒ळस्प॒दे मनु॑षा॒ यत्समि॑द्धः। श्रियं॒ वसा॑नो अ॒मृतो॒ विचे॑ता मर्मृ॒जेन्यः॑ श्रव॒स्यः१॒॑ स वा॒जी॥
स्वर सहित पद पाठजो॒हूत्रः॑ । अ॒ग्निः । प्र॒थ॒मः । पि॒ताऽइ॑व । इ॒ळः । प॒दे । मनु॑षा । यत् । सम्ऽइ॑द्धः । श्रिय॑म् । वसा॑नः । अ॒मृतः॑ । विऽचे॑ताः । म॒र्मृ॒जेन्यः॑ । श्र॒व॒स्यः॑ । सः । वा॒जी ॥
स्वर रहित मन्त्र
जोहूत्रो अग्निः प्रथमः पितेवेळस्पदे मनुषा यत्समिद्धः। श्रियं वसानो अमृतो विचेता मर्मृजेन्यः श्रवस्यः१ स वाजी॥
स्वर रहित पद पाठजोहूत्रः। अग्निः। प्रथमः। पिताऽइव। इळः। पदे। मनुषा। यत्। सम्ऽइद्धः। श्रियम्। वसानः। अमृतः। विऽचेताः। मर्मृजेन्यः। श्रवस्यः। सः। वाजी॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
विषय - यज्ञाग्निवत् राजा का पवित्र पद और उसके कर्त्तव्य
भावार्थ -
अग्नि जिस प्रकार ( मनुषा ) मननशील पुरुष द्वारा ( इडस्पदे ) पृथ्वी पर ( समिद्धः ) प्रज्वलित किया जाकर ( जोहूत्रः ) नाना सुख देने वाला, नाना कार्यों में प्रयोग करने योग्य, ( प्रथमः ) विस्तृत गुणशाली ( पिता इव ) पिता के समान पालता है। वही ( श्रियं वसानः ) कान्ति, शोभा को धारण करता हुआ, ( अमृतः ) नित्य (विचेताः) ज्ञान चेतना से रहित, जड़ अग्नि भी (मर्मृजेन्यः) सब पदार्थो को स्वच्छ करने हारा ( वाजी ) वेगवान् ( श्रवस्यः ) अन्नों को उत्तम खाने योग्य बना देता है । उसी प्रकार ( अग्निः ) अग्रणी विद्वान्, नायक ( जोहूत्रः ) नाना ज्ञानों और ऐश्वर्यों का देनेवाला, युद्ध में शत्रुओं को ललकारने वाला विपत्ति-कालों में प्रजाओं द्वारा, उत्सवों में मित्रों द्वारा पुकारे जाने और निमन्त्रित किये जाने योग्य, ( प्रथमः ) सर्वश्रेष्ठ, अति प्रसिद्ध है, ( यत् ) जब ( मनुषा ) मननशील गुरु, वा मनन करने में योग्य सचिवादि के गुप्त मन्त्र द्वारा ( समिद्धः ) बल और ज्ञान में खूब प्रदीप्त, प्रचण्ड होता है तब ( इड़-पदे ) इस पृथिवी पर, राजा और (इडः-पदे) अन्नादि के लाभ में पिता और ( इड:-पदे ) वाणी, वेद विद्या के प्राप्त कराने में आचार्य (पिता इव) पालक पिता के समान हो जाता है । वह ( अमृतः ) कभी न मरने वाला, स्थायी, चिरजीवी (श्रियं) राज्यलक्ष्मी को ( वसानः ) वस्त्रों के समान बाह्य शोभा रूप से धारण करता हुआ या ( श्रियं वसानः ) लक्ष्मी को स्वयं आच्छादन अर्थात् उसकी रक्षा करता हुआ ( वि-चेताः ) विविध ज्ञानों से युक्त ( मर्मृजेन्यः ) न्याय व्यवहारों द्वारा विवेकशील और दुष्टों से राष्ट्र को कण्टक शून्य करता हुआ (श्रवस्यः) श्रवण करने योग्य, ज्ञानवान् और यश का पात्र और (वाजी) बलवान् हो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द:– १, २, ६ विराट् त्रिष्टुप् ३ त्रिष्टुप् । ४ निचृत् त्रिष्टुप । ५ पङ्क्तिः । षडृचं सूक्तम् ॥
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