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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 25/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    तस्मा॒ इद्विश्वे॑ धुनयन्त॒ सिन्ध॒वोऽच्छि॑द्रा॒ शर्म॑ दधिरे पु॒रूणि॑। दे॒वानां॑ सु॒म्ने सु॒भगः॒ स ए॑धते॒ यंयं॒ युजं॑ कृणु॒ते ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्मै॑ । इत् । विश्वे॑ । धु॒न॒य॒न्त॒ । सिन्ध॑वः । अच्छि॑द्रा । शर्म॑ । द॒धि॒रे॒ । पु॒रूणि॑ । दे॒वाना॑म् । सु॒म्ने । सु॒ऽभगः॑ । सः । ए॒ध॒ते॒ । यम्ऽय॑म् । युज॑म् । कृ॒णु॒ते । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्मा इद्विश्वे धुनयन्त सिन्धवोऽच्छिद्रा शर्म दधिरे पुरूणि। देवानां सुम्ने सुभगः स एधते यंयं युजं कृणुते ब्रह्मणस्पतिः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्मै। इत्। विश्वे। धुनयन्त। सिन्धवः। अच्छिद्रा। शर्म। दधिरे। पुरूणि। देवानाम्। सुम्ने। सुऽभगः। सः। एधते। यम्ऽयम्। युजम्। कृणुते। ब्रह्मणः। पतिः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 25; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    ( ब्रह्मणस्पतिः ययं युजं कृणुते ) महान् ऐश्वर्य और बल का पालक जिस २ को अपना सहयोगी बना लेता, और राज्यकार्य में नियुक्त करता है ( तस्मै इत् ) उसके लिये ( विश्वे सिन्धवः ) समस्त समुद्र, नदी, जल आदि (धुनयन्त) चलते हैं। या बड़े २ समुद्र भी छोटी नदी के समान हो जाते हैं। वे सब नदी आदि ( पुरूणि ) बहुत से (अच्छिद्रा) त्रुटिरहित निर्दोष ( शर्म ) सुख (दधिरे) प्रदान करते हैं। वह ( देवानां ) विद्वानों और विजयी पुरुषों के योग्य ( सुम्ने ) सुख में ( सुभगः ) उत्तम ऐश्वर्यवान् होकर ( एधते ) बढ़ता है। इसी प्रकार परमेश्वर और गुरु का जिसपर अनुग्रह होता है सब (सिन्धवः) प्राणगण चलते हुए उसपर सुख बरसाते, सब उत्तम सुख देते वह दिव्य पुरुष इन्द्रियों के सुख में भी सौभाग्यवान् होकर संवित् आदि सिद्धियों में वृद्धि को प्राप्त होता है । इति चतुर्थी वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः ॥ ब्रह्मणस्पतिर्देवता ॥ छन्दः– १, २ जगती । ३ निचृज्जगती ४, ५ विराड् जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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