ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 16/ मन्त्र 6
श॒ग्धि वाज॑स्य सुभग प्र॒जाव॒तोऽग्ने॑ बृह॒तो अ॑ध्व॒रे। सं रा॒या भूय॑सा सृज मयो॒भुना॒ तुवि॑द्युम्न॒ यश॑स्वता॥
स्वर सहित पद पाठश॒ग्धि । वाज॑स्य । सु॒ऽभ॒ग॒ । प्र॒जाऽव॑तः । अग्ने॑ । बृ॒ह॒तः । अ॒ध्व॒रे । सम् । रा॒या । भूय॑सा । सृ॒ज॒ । म॒यः॒ऽभुना॑ । तुवि॑ऽद्युम्न । यश॑स्वता ॥
स्वर रहित मन्त्र
शग्धि वाजस्य सुभग प्रजावतोऽग्ने बृहतो अध्वरे। सं राया भूयसा सृज मयोभुना तुविद्युम्न यशस्वता॥
स्वर रहित पद पाठशग्धि। वाजस्य। सुऽभग। प्रजाऽवतः। अग्ने। बृहतः। अध्वरे। सम्। राया। भूयसा। सृज। मयःऽभुना। तुविऽद्युम्न। यशस्वता॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 16; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
विषय - पक्षान्तर में प्रभु से प्रार्थना।
भावार्थ -
हे (अग्ने) नायक राजन् विद्वन् ! तू (अध्वरं) हिंसा रहित प्रजापालन आदि उत्तम व्यवहार के पालन के कार्य में (प्रजावतः) प्रजा से युक्त (बृहतः) बड़े (वाजस्य) ज्ञान और ऐश्वर्य को प्राप्त करने में (शग्धि) समर्थ हो और उसके द्वारा स्वयं (शग्धि) शक्तिशाली बन। हे (सुभग) उत्तम ऐश्वर्य के स्वामिन् ! हे (तुविद्युम्न) बहुत से ऐश्वर्यो के स्वामिन् ! तू (मयोभुना) सुख को उत्पन्न करने वाले (यशस्वता) कीर्त्ति और अन्न से सम्पन्न (राया) ऐश्वर्य से (सं सृज) हमें समृद्ध कर इति षोडशो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - उत्कीलः कात्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ५ भुरिगनुष्टुप। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ३ निचृद् बृहती। ४ भुरिग् बृहती ॥ षडृचं सूक्तम्॥
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