ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
स॒मि॒ध्यमा॑नः प्रथ॒मानु॒ धर्मा॒ समु॒क्तभि॑रज्यते वि॒श्ववा॑रः। शो॒चिष्के॑शो घृ॒तनि॑र्णिक्पाव॒कः सु॑य॒ज्ञो अ॒ग्निर्य॒जथा॑य दे॒वान्॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽइ॒ध्यमा॑नः । प्र॒थ॒मा । अनु॑ । धर्म॑ । सम् । अ॒क्तुऽभिः॑ । अ॒ज्य॒ते॒ । वि॒श्वऽवा॑रः । शो॒चिःऽके॑शः । घृ॒तऽनि॑र्निक् । पा॒व॒कः । सु॒ऽय॒ज्ञः । अ॒ग्निः । य॒जथा॑य । दे॒वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
समिध्यमानः प्रथमानु धर्मा समुक्तभिरज्यते विश्ववारः। शोचिष्केशो घृतनिर्णिक्पावकः सुयज्ञो अग्निर्यजथाय देवान्॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽइध्यमानः। प्रथमा। अनु। धर्म। सम्। अक्तुऽभिः। अज्यते। विश्वऽवारः। शोचिःऽकेशः। घृतऽनिर्निक्। पावकः। सुऽयज्ञः। अग्निः। यजथाय। देवान्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
विषय - यज्ञाग्निवत् वोर विद्वान् के कर्त्तव्य। परमेश्वर का वर्णन
भावार्थ -
जिस प्रकार (यजथाय) यज्ञ के लिये (समिध्यमानः) प्रदीप्त किया हुआ अग्नि (प्रथमा धर्मा अनु) अपने विस्तृत करने वाले या प्रसिद्ध धर्मों के अनुसार (अक्तुभिः) रात्रियों द्वारा या (अक्तुभिः) अन्य को प्रकट करने वाले साधन घृत आदि या रश्मियों से अच्छी प्रकार चमकाया या सींचा जाता है और वह (विश्ववारः) सब से वरण करने योग्य सब कष्टों का वारक (शोचिष्केशः) दीप्तिमय केशों या किरणों से युक्त, (घृत-निर्णिक्) दीप्तिस्वरूप या घृत से अति पवित्र स्वरूपवान्, (पावकः) पवित्रकारक, (सुयज्ञः) उत्तम यज्ञ का साधन होकर (देवान् ज भवति) जो विद्वानों के सत्संग तथा उत्तम गुणों के प्रदान और प्रकाशों को देने के लिये समर्थ होता है उसी प्रकार (अग्निः) ज्ञानवान्, तेजस्वी, अग्रणी पुरुष भी (शोचिष्केशः) दीप्तियों तेजों को केशों के समान मुख या शिर पर धारण करनेहारा (घृत-निर्णिक्) दीप्तियुक्त, तेजस्वी स्वरूप से युक्त (पावकः) अग्नि के समान तेजस्वी और सत्संग से अन्यों का पवित्र निष्पाप करने वाला (सुयज्ञः) सुखपूर्वक सत्संग, मैत्री, सत्कार, मान आदर करने योग्य, एवं उत्तम दानशील (विश्ववारः) सब से वरण करने योग्य (देवान् यजथाय) विद्वान् पुरुषों की परस्पर संगति और प्रेम, मैत्रीभाव उत्पन्न करने के लिये (समिध्यमानः) सब से मिलकर उत्तेजित प्रकाशित या प्रेरित किया जाकर (प्रथमा धर्मा अनु) कीर्त्ति प्रसिद्ध करने वाले वा प्रख्यात एवं उत्तम या पूर्व से चले आये (धर्मा अनु) धर्मों, नियमों, धार्मिक व्यवस्थाओं या कर्तव्यों के अनुकूल (अक्तुभिः) अभिषेकों द्वारा, घृतसेचनों द्वारा अग्नि के समान (सम् अज्यते) अच्छी प्रकार अभिषेक किया जावे। (२) परमेश्वर (प्रथमा धर्मा अनु समिध्यमानः) सर्वोत्तम धर्मों के धारण करने योग्य कर्मों के अनुसार उत्तम रीति से प्रकाशित किया जाकर (अक्तुभिः) उसके लक्षणों के प्रकाशों वा योगाङ्ग साधनों द्वारा हृदय में प्रदीप्त किया जावे वह सबके वरण करने योग्य, सब कष्टों का वारक तेजोमय तेजों से अन्यों को पालन करने वाला होने से ही ‘पावक’ है वह उत्तम पूजनीय प्रभु (देवान् यजथाय) उत्तम गुणों को अपने में प्राप्त करने या देवों, विद्वानों के लिये पूजा करने योग्य है।
टिप्पणी -
**उत्कीलः काव्य इति द०। समिध्यमानः पञ्च कतो वैश्वामित्रः इति सर्वानु०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कतो वैश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, २ त्रिष्टुप। ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५ त्रिष्टुप्। ३ निचृत् पंक्तिः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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