ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
यथाय॑जो हो॒त्रम॑ग्ने पृथि॒व्या यथा॑ दि॒वो जा॑तवेदश्चिकि॒त्वान्। ए॒वानेन॑ ह॒विषा॑ यक्षि दे॒वान्म॑नु॒ष्वद्य॒ज्ञं प्र ति॑रे॒मम॒द्य॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । अय॑जः । हो॒त्रम् । अ॒ग्ने॒ । पृ॒थि॒व्याः । यथा॑ । दि॒वः । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । चि॒कि॒त्वान् । ए॒व । अ॒नेन॑ । ह॒विषा॑ । य॒क्षि॒ । दे॒वान् । म॒नु॒ष्वत् । य॒ज्ञम् । प्र । ति॒र॒ । इ॒मम् । अ॒द्य ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथायजो होत्रमग्ने पृथिव्या यथा दिवो जातवेदश्चिकित्वान्। एवानेन हविषा यक्षि देवान्मनुष्वद्यज्ञं प्र तिरेममद्य॥
स्वर रहित पद पाठयथा। अयजः। होत्रम्। अग्ने। पृथिव्याः। यथा। दिवः। जातऽवेदः। चिकित्वान्। एव। अनेन। हविषा। यक्षि। देवान्। मनुष्वत्। यज्ञम्। प्र। तिर। इमम्। अद्य॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
विषय - सूर्यवत् विद्वान् का आदान, प्रतिदान।
भावार्थ -
हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! अग्नि के समान प्रकाश और तेज से युक्त ! विद्वन् ! राजन् ! (यथा) जिस प्रकार से तू (पृथिव्याः) पृथिवी से (होत्रम्) लेने योग्य ज्ञान और अन्नादि ऐश्वर्य के समान (पृथिव्याः) पृथिवी पर बसी विस्तृत प्रजा से ऐश्वर्य (अयजः) आदरपूर्वक प्राप्त करता है और हे (जातवेदः) ज्ञान ऐश्वर्य को प्राप्त करने हारे तू (चिकित्वान्) स्वयं ज्ञानवान् होकर (यथा) जिस प्रकार (दिवः) सूर्य से प्रकाश के तुल्य, आकाश से वृष्टि के तुल्य (दिवः) ज्ञानी पुरुषों से (होत्रम् अयजः) ग्रहण करने योग्य उत्तम ज्ञान प्राप्त करता है (एवं) उसी प्रकार (अनेन) इस (हविषा) ग्रहण करने योग्य अन्न और ज्ञान से तू (देवान्) इन पदार्थों की कामना करने वाले विद्वान् जनों को (यक्षि) प्रदान कर और तू (मनुष्वत्) मननशील, ज्ञानी पुरुष के तुल्य ही (इमं यज्ञं) इस परस्पर के सत्संग, आदान-प्रतिदान व्यवहार को (अद्य) आज (प्र तिर) उत्तम रीति से विस्तृत कर। (२) परमेश्वर पृथिवी और आकाश या सूर्य को अन्न जल प्रकाश आदि देता है उसी प्रकार इस अन्न से अभिलाषियों की अभिलाषा पूर्ण करता है। वह सदा इस दान च्यवहार की वृष्टि करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कतो वैश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, २ त्रिष्टुप। ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५ त्रिष्टुप्। ३ निचृत् पंक्तिः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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