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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒ह त्वं सू॑नो सहसो नो अ॒द्य जा॒तो जा॒ताँ उ॒भयाँ॑ अ॒न्तर॑ग्ने। दू॒त ई॑यसे युयुजा॒न ऋ॑ष्व ऋजुमु॒ष्कान्वृष॑णः शु॒क्रांश्च॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । त्वम् । सू॒नो॒ इति॑ । स॒ह॒सः॒ । नः॒ । अ॒द्य । जा॒तः । जा॒तान् । उ॒भया॑न् । अ॒न्तः । अ॒ग्ने॒ । दू॒तः । ई॒य॒से॒ । य्य्जा॒नः । ष्व् । ऋ॒जु॒ऽमु॒ष्कान् । वृष॑णः । शु॒क्रान् । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इह त्वं सूनो सहसो नो अद्य जातो जाताँ उभयाँ अन्तरग्ने। दूत ईयसे युयुजान ऋष्व ऋजुमुष्कान्वृषणः शुक्रांश्च ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह। त्वम्। सूनो इति। सहसः। नः। अद्य। जातः। जातान्। उभयान्। अन्तः। अग्ने। दूतः। ईयसे। युयुजानः। ऋष्व। ऋजुऽमुष्कान्। वृषणः। शुक्रान्। च॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे परमेश्वर ! ( सहसः सूनो ) समस्त शक्ति के उत्पन्न करने और चलाने हारे ! हे ( अग्ने ) ज्ञानवान् ! ( इह ) इस संसार में ( त्वं ) तू ( जातः ) प्रकट होकर ( नः ) हम ( जातान् ) उत्पन्न हुए ( उभयान् ) स्थावर, जंगम व पक्ष प्रतिपक्ष स्त्री पुरुष दोनों के ( अन्तः ) बीच में ( दूतः ) दो राजपक्षों के बीच दूत के समान साक्षी और दुष्टों का सन्तापक, दण्डदायक होकर ( ईयसे ) जाना जाता है। तू ( ऋष्वः ) महान् होकर ( ऋजुमुष्कान् ) ऋजु, सरल धर्ममार्ग से परिपुष्ट होने वाले ( वृषणः ) बलवान् ( शुक्रांश्च ) शीघ्र कार्य करने में समर्थ वा वीर्यवान् तेजस्वी पुरुषों को भी ( युयुजानः ) योगाभ्यास द्वारा समाहित करता है, उनको प्राप्त होता है । ( २ ) राजा सैन्यबल का सञ्चालक, पुत्रवत् उत्पन्न होकर मित्र रिपु दोनों वर्गों के बीच परन्तप होकर जाना जाय । वह महान् राष्ट्र में धर्मनीति से पुष्ट, बलशाली, आशुकर्म करने में समर्थ, कुशल पुरुषों को नियुक्त करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः- १, १९ पंक्तिः । १२ निचृत्पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । २, ४–७, ९, १३, १५, १७, १८, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, १६ त्रिष्टुप् । ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् ॥

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