ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
अत्या॑ वृध॒स्नू रोहि॑ता घृ॒तस्नू॑ ऋ॒तस्य॑ मन्ये॒ मन॑सा॒ जवि॑ष्ठा। अ॒न्तरी॑यसे अरु॒षा यु॑जा॒नो यु॒ष्मांश्च॑ दे॒वान्विश॒ आ च॒ मर्ता॑न् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअत्या॑ । वृ॒ध॒स्नू इति॑ वृ॒ध॒ऽस्नू । रोहि॑ता । घृ॒तस्नू॒ इति॑ घृ॒तऽस्नू॑ । ऋ॒तस्य॑ । म॒न्ये॒ । मन॑सा । जवि॑ष्ठा । अ॒न्तः । ई॒य॒से॒ । अ॒रु॒षा । यु॒जा॒नः । यु॒ष्मान् । च॒ । दे॒वान् । विशः॑ । आ । च॒ । मर्ता॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्या वृधस्नू रोहिता घृतस्नू ऋतस्य मन्ये मनसा जविष्ठा। अन्तरीयसे अरुषा युजानो युष्मांश्च देवान्विश आ च मर्तान् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअत्या। वृधस्नू इति वृधऽस्नू। रोहिता। घृतस्नू इति घृतऽस्नू। ऋतस्य। मन्ये। मनसा। जविष्ठा। अन्तः। ईयसे। अरुषा। युजानः। युष्मान्। च। देवान्। विशः। आ। च। मर्तान्॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
विषय - जगत् के राजा के तुल्य प्रभु का वर्णन ।
भावार्थ -
जिस प्रकार महारथी ( अत्या युजानः ) वेगवान् दो घोड़ों को रथ में लगाता हुआ ( विशः अन्तः ईयते ) प्रजाओं के बीच में प्रवेश करता है उसी प्रकार हे आत्मन् ( अत्या ) सदा गतिशील, ( वृधस्नू ) शरीर की वृद्धि करने वाले, ( रोहिता ) रक्त वर्णवत् तेजस्वी, ( घृतस्नू ) तेज का सञ्चार कराने वाले, ( मनसा जविष्ठा ) मन के बल से अति अधिक वेग वाले, ( अरुषा ) कान्तिमान् वा उद्वेग से रहित, प्राण और अपान दोनों को, ( युजानः ) योगाभ्यास द्वारा वश करता हुआ तू ( युष्मान् देवान् ) तुम सब अर्थात् स्वरूप से भिन्न २ ज्ञानप्रकाशक और ग्राह्य विषय के अभिलाषी, इन्द्रियगत प्राणों और ( विशः ) प्रवेश करने योग्य ( मर्त्तान् च ) मरणधर्मा शरीरों को भी ( आ ) पूर्णतया व्याप कर ( अन्तः ) उनके भीतर ( ईयसे ) गति करता है । उसको मैं ( मन्ये) ज्ञान करता और आत्मा मानता हूं। ( २ ) इसी प्रकार राष्ट्र में प्रधान पुरुष अपने अधीन ( ऋतस्य मनसा ) सत्य के ज्ञान वा न्याय, ऐश्वर्य से समृद्धिदायक तेजस्वी, दो प्रधान पुरुषों को प्रधान पद पर नियुक्त करके, वह सब विद्वानों, प्रजाओं और वीर पुरुषों के बीच प्रसिद्ध हो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः- १, १९ पंक्तिः । १२ निचृत्पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । २, ४–७, ९, १३, १५, १७, १८, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, १६ त्रिष्टुप् । ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् ॥
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