ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 42/ मन्त्र 1
प्र शंत॑मा॒ वरु॑णं॒ दीधि॑ती॒ गीर्मि॒त्रं भग॒मदि॑तिं नू॒नम॑श्याः। पृष॑द्योनिः॒ पञ्च॑होता शृणो॒त्वतू॑र्तपन्था॒ असु॑रो मयो॒भुः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । शम्ऽत॑मा । वरु॑णम् । दीधि॑ती । गीः । मि॒त्रम् । भग॑म् । अदि॑तिम् । नू॒नम् । अ॒श्याः॒ । पृष॑त्ऽयोनिः । पञ्च॑ऽहोता । शृ॒णो॒तु॒ । अतू॑र्तऽपन्थाः । असु॑रः । म॒यः॒ऽभुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र शंतमा वरुणं दीधिती गीर्मित्रं भगमदितिं नूनमश्याः। पृषद्योनिः पञ्चहोता शृणोत्वतूर्तपन्था असुरो मयोभुः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। शम्ऽतमा। वरुणम्। दीधिती। गीः। मित्रम्। भगम्। अदितिम्। नूनम्। अश्याः। पृषत्ऽयोनिः। पञ्चऽहोता। शृणोतु। अतूर्तऽपन्थाः। असुरः। मयःऽभुः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 42; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
विषय - वाणी का वर्णन । पक्षान्तर में पञ्चजन की वाणी का आदर
भावार्थ -
भा०-हे विद्वन् ! ( शन्तमा ) अति शान्तिकारक ( दीधिती ) उत्तम ज्ञान का प्रकाश करती हुई ( गीः ) वाणी ( वरुणं ) श्रेष्ठ (मित्रं) सबके स्नेही (भगम् ) सेवा योग्य, ऐश्वर्यवान् और ( अदितिम् ) अखण्डित व्रत और शासन के पालक पुरुष को प्राप्त होती है तू भी उसको ( नूनम् अश्याः ) अवश्य प्राप्त कर । वह वाणी, ( पृषद् योनिः ) मेघ के तुल्य सुख-वर्षणकारी अन्तरात्मा में उत्पन्न होती और (पञ्चहोता) पांचों प्राणों द्वारा गृहीत ज्ञान को अपने में लेने हारी है । उसको ऐसा पुरुष ( शृणोतु ) सुने जिसका ( अतूर्त्तपन्थाः ) ज्ञान-मार्ग विनष्ट न हुआ हो, जो ( असुरः ) बलवान् और प्राणों के सुख में रमण करता हो और ( मयोभुः ) सब सुखों का आश्रय स्थान हो । ( २ ) राष्ट्र में अहिंसित मार्ग वाला, बलवान्, सुखप्रद राजा प्रजा की ऐसे वाणी को सुने जो ( पृषद्-योनिः ) परिषद् या 'जूरी' से उत्पन्न हो और पांच व्यक्ति, पञ्च जन उसको स्वीकार करें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:-१, ४, ६, ११, १२, १५, १६, १८ निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, ७, ८,९, १३,१४ त्रिष्टुप् । १७ याजुषी पंक्ति: । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥
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