ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
को वे॑द॒ जान॑मेषां॒ को वा॑ पु॒रा सु॒म्नेष्वा॑स म॒रुता॑म्। यद्यु॑यु॒ज्रे कि॑ला॒स्यः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठकः । वे॒द॒ । जान॑म् । ए॒षा॒म् । कः । वा॒ । पु॒रा । सु॒म्नेषु॑ । आ॒स॒ । म॒रुता॑म् । यत् । यु॒यु॒ज्रे । कि॒ला॒स्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
को वेद जानमेषां को वा पुरा सुम्नेष्वास मरुताम्। यद्युयुज्रे किलास्यः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठकः। वेद। जानम्। एषाम्। कः। वा। पुरा। सुम्नेषु। आस। मरुताम्। यत्। युयुज्रे। किलास्यः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 53; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
विषय - वायुओं, प्राणों, विद्वानों, और मनुष्यों की उत्पत्ति का रहस्य । उनका नियोक्ता कौन ?
भावार्थ -
भा०-(कः ) कौन ( एषां मरुताम् ) इन वायुओं, प्राणों और मनुष्यों के (जानम् ) उत्पत्ति के रहस्य को (वेद) जानता है (वा) और (कः ) कौन इनके ( सुम्नेषु ) समस्त सुखों के बीच भोक्ता रूप से (आस) स्थिर रूप से विद्यमान रहता है ? [ उत्तर ] ( पुरा यत् ) जो इन सबसे पूर्व, इन सबके बीच ( किलास्यः ) निश्चित रूप से प्रमुख होकर वा स्थिर वाणी वाला होकर इन को ( युयुज्रे ) कार्य में नियुक्त करता, वश कर समाहित करता, वा जो उनको ( किलास्यः ) अश्वों के समान देह में प्राणों को, राष्ट्र में अधीन भृत्यों को युद्ध में सैनिकों को वा यन्त्रों में वायुओं को प्रयोग करता है वही इनके (जानं वेद ) उत्पत्ति के रहस्य को भी जानता है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:-१ भुरिग्गायत्री । ८, १२ गायत्री । २ निचृद् बृहती । ९ स्वराड्बृहती । १४ बृहती । ३ अनुष्टुप् । ४, ५ उष्णिक् । १०, १५ विराडुष्णिक् । ११ निचृदुष्णिक् । ६, १६ पंक्तिः ७, १३ निचृत्पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
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