ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
त्वद् विश्वा॑ सुभग॒ सौभ॑गा॒न्यग्ने॒ वि य॑न्ति व॒निनो॒ न व॒याः। श्रु॒ष्टी र॒यिर्वाजो॑ वृत्र॒तूर्ये॑ दि॒वो वृ॒ष्टिरीड्यो॑ री॒तिर॒पाम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठत्वत् । विश्वा॑ । सु॒ऽभ॒ग॒ । सौभ॑गानि । अग्ने॑ । वि । या॒न्ति॒ । व॒निनः॑ । न । व॒याः । श्रु॒ष्टी । र॒यिः । वाजः॑ । वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑ । दि॒वः । वृ॒ष्टिः । ईड्यः॑ । री॒तिः । अ॒पाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वद् विश्वा सुभग सौभगान्यग्ने वि यन्ति वनिनो न वयाः। श्रुष्टी रयिर्वाजो वृत्रतूर्ये दिवो वृष्टिरीड्यो रीतिरपाम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठत्वत्। विश्वा। सुऽभग। सौभगानि। अग्ने। वि। यन्ति। वनिनः। न। वयाः। श्रुष्टी। रयिः। वाजः। वृत्रऽतूर्ये। दिवः। वृष्टिः। ईड्यः। रीतिः। अपाम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
विषय - वृक्ष से शाखावत् सूर्य से वृष्टियों के समान राजा से राज-सभासदाओं का विकास ।
भावार्थ -
जिस प्रकार अग्नि वा विद्युत् से ( विश्वा सौभगानि ) समस्त सुखजनक ऐश्वर्य ( वनिनः न वयाः ) वृक्ष से शाखाओं के तुल्य उत्पन्न होते हैं इसी प्रकार हे ( सुभग ) उत्तम, ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! हे ( अग्ने ) अग्निवत् तेजस्विन् ! ( विश्वा सौभगानि ) समस्त सौभाग्य ( वनिनः वयाः न ) वृक्ष से शाखाओं के समान (वियन्ति) विविध प्रकार से निकलते हैं। अथवा – ( वयाः न ) पक्षी जिस प्रकार ( वनिनः ) समस्त सुखों को वृक्ष से ( वियन्ति ) प्राप्त करते हैं उसी प्रकार ( वनिनः त्वत् ) ऐश्वर्यवान् तुझ से ही ( वयाः ) तेरे शाखा के समान राष्ट्र के सब भाग ( विश्वा सौभगानि ) समस्त सौभाग्य सुख ( वि यन्ति ) विशेष रूप से वा विविध प्रकार से प्राप्त करते हैं। जिस प्रकार ( श्रुष्टिः रयिः वृत्रतूर्ये दिवः वृष्टिः अपां रीतिः अग्नेः वनिनः च ) अन्न, देह, मेघ, विद्युत्, वृष्टि और जलों की धारा आदि सब ही तेजस्वी सूर्य और विद्युत् से ही उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार हे राजन् ! (श्रुष्टिः) अन्न समृद्धि, (रायः ) ऐश्वर्य, सम्पदा, (वृत्रतूर्ये ) शत्रु के नाश करने के निमित्त ( वाजः ) बल, सैन्य आदि ( वृष्टिः ) शस्त्र-वर्षण और प्रजा पर समस्त सुखों की वृष्टि और (अपां रीतिः ) आप्त पुरुषों का आगमन, प्रजाओं का सन्मार्ग में चलना और राष्ट्र में जल धाराओं, नहरों का बहना, आदि सब ( दिवः त्वत् ) सर्व कामना योग्य, सूर्यवत् तेजस्वी तुझ से ही उत्पन्न होता है ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः - १ पंक्तिः । २ स्वराट् पंक्तिः। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ।।
इस भाष्य को एडिट करें