ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
त्वद्भि॒येन्द्र॒ पार्थि॑वानि॒ विश्वाच्यु॑ता चिच्च्यावयन्ते॒ रजां॑सि। द्यावा॒क्षामा॒ पर्व॑तासो॒ वना॑नि॒ विश्वं॑ दृ॒ळ्हं भ॑यते॒ अज्म॒न्ना ते॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठत्वत् । भि॒या । इ॒न्द्र॒ । पार्थि॑वानि । विश्वा॑ । अच्यु॑ता । चि॒त् । च्य॒व॒य॒न्ते॒ । रजां॑सि । द्यावा॒क्षामा॑ । पर्व॑तासः । वना॑नि । विश्व॑म् । दृ॒ळ्हम् । भ॒य॒ते॒ । अज्म॑न् । आ । ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वद्भियेन्द्र पार्थिवानि विश्वाच्युता चिच्च्यावयन्ते रजांसि। द्यावाक्षामा पर्वतासो वनानि विश्वं दृळ्हं भयते अज्मन्ना ते ॥२॥
स्वर रहित पद पाठत्वत्। भिया। इन्द्र। पार्थिवानि। विश्वा। अच्युता। चित्। च्यवयन्ते। रजांसि। द्यावाक्षामा। पर्वतासः। वनानि। विश्वम्। दृळ्हम्। भयते। अज्मन्। आ। ते ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
विषय - उसके सद्गुण । विद्युत्वद् भयकारी बल ।
भावार्थ -
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! प्रभो ! ( त्वत् भिया ) तुझ से भयभीत होकर, तेरे शासन में ( विश्वा पार्थिवानि ) समस्त पृथिवी के जन्तु (अच्युता) स्वयं नष्ट न होकर भी ( रजांसि चित् च्यावयन्ते) अन्य लोकों को भी मार्ग पर जाने देते हैं, वे एक दूसरे का नाश नहीं करते । ( ते अज्मन्) तेरे बड़े भारी बल के अधीन ( द्यावा क्षामा ) सूर्य और पृथिवी के तुल्य समस्त नर नारी, ( पर्वतासः ) पर्वतों या मेघों के तुल्य बड़े २ प्रजापालक जन और ( वनानि ) जंगल, वा सेव्य नाना ऐश्वर्य (विश्वं दृढ़ ) सब पदार्थ स्थिर रहकर भी विद्युत् के समान (भयते) भय करता है, तेरा शासन स्वीकार करता है । विद्युत् के प्रहार से जैसे मेघ ( पार्थिवानि रजांसि ) पृथिवी से लिये जलों को नीचे गिरा देते हैं । सब उसके भय से कांपते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सुहोत्र ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः-१ निचृत् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ३ पंक्ति: । ४ निचृदतिशक्वरी । ५ त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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