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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सुहोत्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    त्वं कुत्से॑ना॒भि शुष्ण॑मिन्द्रा॒शुषं॑ युध्य॒ कुय॑वं॒ गवि॑ष्टौ। दश॑ प्रपि॒त्वे अध॒ सूर्य॑स्य मुषा॒यश्च॒क्रमवि॑वे॒ रपां॑सि ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । कुत्से॑न । अ॒भि । शुष्ण॑म् । इ॒न्द्र॒ । अ॒शुष॑म् । यु॒ध्य॒ । कुय॑वम् । गवि॑ष्टौ । दश॑ । प्र॒ऽपि॒त्वे । अध॑ । सूर्य॑स्य । मु॒षा॒यः । च॒क्रम् । अवि॑वेः । रपां॑सि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं कुत्सेनाभि शुष्णमिन्द्राशुषं युध्य कुयवं गविष्टौ। दश प्रपित्वे अध सूर्यस्य मुषायश्चक्रमविवे रपांसि ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। कुत्सेन। अभि। शुष्णम्। इन्द्र। अशुषम्। युध्य। कुयवम्। गविष्टौ। दश। प्रऽपित्वे। अध। सूर्यस्य। मुषायः। चक्रम्। अविवेः। रपांसि ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    ( इन्द्र ) विद्युत् के समान तेजस्विन् ! शत्रुहन्तः ! हे ( इन्द्र ) भूमि के विदारक ! कृषक ! ( त्वं ) तू ( कुत्सेन ) वज्र या हथियार, हल के बल से ( अशुषम् शुष्णम् ) कभी न सूखने वाले, अपार जल के बल को प्राप्त करके (गविष्टौ ) बैलों, तथा भूमि की इष्टि अर्थात् प्राप्ति और उसमें बीज वपन आदि करके ( कु-यवं ) कुत्सित जौं आदि धान्य उत्पन्न करने के दोष को (अभि यु-द्ध्य ) दूर कर । और उत्तम अन्न प्राप्त कर । इसी प्रकार हे राजन् ! तू शस्त्र बल से अपार बल प्राप्त करके (गविष्टौ ) भूमि को प्राप्त करने के लिये ( कुयवं ) कुत्सित अन्न खाने वाले अथवा कुत्सित उपायों से प्रजा का नाश करने वाले दुष्ट जन का ( अभि युद्धय ) बराबर मुक़ाबला किया कर । ( अध) और (प्रपित्वे ) उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त होने पर ( सूर्यस्य दश रपांसि ) सूर्य के दसों हननकारी बलों को ( मुषायः ) प्राप्त कर और ( चक्रम् अविवेः ) राष्ट्र में चक्र का सञ्चालन कर अथवा ( सूर्यस्य चक्रम् ) सूर्य के चक्र या विम्ब या ग्रह चक्र के समान अपने राज चक्र को ( मुषायः ) उसके अनुकरण में चला वा ( मुषायः = पुषायः ) पुष्ट कर । (रपांसि अविवेः ) हनन साधन सैन्यों को सञ्चालित कर तथा ( रपांसि ) पापकारी दुष्ट पुरुषों को (दश) नष्ट कर, वा ( दश अविवेः ) दशों दिशाओं से दूर कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सुहोत्र ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः-१ निचृत् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ३ पंक्ति: । ४ निचृदतिशक्वरी । ५ त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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