ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
स्व१॒॑र्ण वस्तो॑रु॒षसा॑मरोचि य॒ज्ञं त॑न्वा॒ना उ॒शिजो॒ न मन्म॑। अ॒ग्निर्जन्मा॑नि दे॒व आ वि वि॒द्वान्द्र॒वद्दू॒तो दे॑व॒यावा॒ वनि॑ष्ठः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठस्वः॑ । न । वस्तोः॑ । उ॒षसा॑म् । अ॒रो॒चि॒ । य॒ज्ञम् । त॒न्वा॒नाः । उ॒शिजः॑ । न । मन्म॑ । अ॒ग्निः । जन्मा॑नि । दे॒वः । आ । वि । वि॒द्वान् । द्र॒वत् । दू॒तः । दे॒व॒ऽयावा॑ । वनि॑ष्ठः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्व१र्ण वस्तोरुषसामरोचि यज्ञं तन्वाना उशिजो न मन्म। अग्निर्जन्मानि देव आ वि विद्वान्द्रवद्दूतो देवयावा वनिष्ठः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठस्वः। न। वस्तोः। उषसाम्। अरोचि। यज्ञम्। तन्वानाः। उशिजः। न। मन्म। अग्निः। जन्मानि। देवः। आ। वि। विद्वान्। द्रवत्। दूतः। देवऽयावा। वनिष्ठः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
विषय - वह सबको प्रबुद्ध करे ।
भावार्थ -
( अग्निः ) अग्नि के समान तेजस्वी, विद्वान् पुरुष ( वस्तोः स्वः न ) दिन के समय कान्ति युक्त किरणों के बीच सूर्य के समान ( उषसाम् ) कामना युक्त प्रजाओं और शत्रुओं को दग्ध करने वाली सेनाओं के बीच ( अरोचि) सबको अच्छा लगता है । ( यज्ञं तन्वानाः उशिजः न ) यज्ञ करने वाले धनादि के इच्छुक ऋत्विजों के समान (उशिजः) विद्या धनादि की कामना करने वाले पुरुष भी ( यज्ञं तन्वानाः ) सत्संग करते हुए ( मन्म ) मनन करने योग्य ज्ञान को प्राप्त करें और वह ( अग्निः ) ज्ञानी पुरुष ( देवः ) ज्ञानदाता, सर्व अज्ञात तत्वों का प्रकाशित करने वाला, ( विद्वान् ) विद्वान् ( देव-यावा ) ज्ञानी पुरुषों को प्राप्त होकर वा अन्यों को शुभ गुण प्राप्त कराने वाला, ( वनिष्ठः ) ज्ञान ऐश्वर्यादि का उदारता से विभाग करता हुआ (जन्मानि) नाना उत्तम जन्मों, रूपों वा उत्तम जन्म ग्रहण करने हारे शिष्य जनों को ( आ विद्रवत्) आदर पूर्वक विशेष रूप से प्राप्त करे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, २, ३ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ।।
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