ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
उ॒षो न जा॒रः पृ॒थु पाजो॑ अश्रे॒द्दवि॑द्युत॒द्दीद्य॒च्छोशु॑चानः। वृषा॒ हरिः॒ शुचि॒रा भा॑ति भा॒सा धियो॑ हिन्वा॒न उ॑श॒तीर॑जीगः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठउ॒षः । न । जा॒रः । पृ॒थु । पाजः॑ । अ॒श्रे॒त् । दवि॑द्युतत् । दीद्य॑त् । शोशु॑चानः । वृषा॑ । हरिः॑ । शुचिः॑ । आ । भा॒ति॒ । भा॒सा । धियः॑ । हि॒न्वा॒नः । उ॒श॒तीः । अ॒जी॒ग॒रिति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उषो न जारः पृथु पाजो अश्रेद्दविद्युतद्दीद्यच्छोशुचानः। वृषा हरिः शुचिरा भाति भासा धियो हिन्वान उशतीरजीगः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठउषः। न। जारः। पृथु। पाजः। अश्रेत्। दविद्युतत्। दीद्यत्। शोशुचानः। वृषा। हरिः। शुचिः। आ। भाति। भासा। धियः। हिन्वानः। उशतीः। अजीगरिति ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
विषय - सूर्यवत् विद्वान् के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
जिस प्रकार ( जार: ) रात्रि को जीर्ण करने वाला सूर्य (पृथु-पजः आश्रेद् ) महान् तेज धारण करता है, (शोशुचानः दविद्युतत् ) खूब तेजस्वी होकर चमकता है उसी प्रकार ( जारः ) विद्या का उपदेष्टा, ( उषः न ) उषा वा प्रभात काल के समान ( पृथु-पाज: ) बड़े भारी बल और अन्न को ( अश्रेत् ) प्राप्त करे। वह (शोशुचानः ) स्वयं तेजस्वी होकर अन्यों को भी शुद्ध करता हुआ (दविद्युतत्) स्वयं प्रकाशित हो, सब को प्रकाशित करे । वह (शुचिः ) शुद्धचित्त, धर्मात्मा, ( वृषा ) बलवान् सब पर सुखों की वर्षा करने हारा, उत्तम प्रबन्धक ( हरिः ) पुरुषः ( आ भाति ) सब प्रकार से प्रकाशित हो । वह ( धियः) कर्त्तव्यों, ज्ञानों और बुद्धियों को ( हिन्वानः ) उपदेश करता हुआ ( उशती: ) विद्या धनादि की अभिलाषा करने वाली प्रजाओं को ( अजीगः ) प्रबुद्ध करे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, २, ३ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ।।
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