ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
अ॒भि द्रोणा॑नि ब॒भ्रव॑: शु॒क्रा ऋ॒तस्य॒ धार॑या । वाजं॒ गोम॑न्तमक्षरन् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । द्रोणा॑नि । ब॒भ्रवः॑ । शु॒क्राः । ऋ॒तस्य॑ । धार॑या । वाज॑म् । गोऽम॑न्तम् । अ॒क्ष॒र॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि द्रोणानि बभ्रव: शुक्रा ऋतस्य धारया । वाजं गोमन्तमक्षरन् ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । द्रोणानि । बभ्रवः । शुक्राः । ऋतस्य । धारया । वाजम् । गोऽमन्तम् । अक्षरन् ॥ ९.३३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 33; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
विषय - विद्वान् शिष्यों के ज्ञान-वितरण की सत्पात्र में दान देने वालों के अनादि दान से उपमा।
भावार्थ -
जिस प्रकार (बभ्रवः) पालक पोषक जन (गोमन्तं वाजं) दूध रस से मिले अन्न को (ऋतस्य धारया) अन्न रस की धारा से (द्रोणानि अभि) पात्रों में (अक्षरन्) डालते हैं उसी प्रकार (बभ्रवः) बभ्रु अर्थात् काषाय वर्ण के उत्तम ज्ञानी, संन्यासी और (बभ्रवः) शिष्यों के पालक पोषक गुरु जन, (शुक्राः) शुद्ध कान्ति से युक्त होकर (ऋतस्य धारया) सत्य ज्ञानमय वेद की वाणी से (गोमन्तं वाजं) वाणियों से युक्त ज्ञान को (द्रोणानि अभि) सत्पात्रों के प्रति (अक्षरन्) प्रवाहित करते हैं। इसी प्रकार तेजस्वी वीर जन वेद की व्यवस्था रूप धारा वा जल की धारा से भूमि के ऊपर उगे अन्न ऐश्वर्य को जैसे, वैसे (द्रोणानि अभि) क्षेत्रों को सेचते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - त्रित ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १ ककुम्मती गायत्री। २, ४, ५ गायत्री। ३, ६ निचृद् गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
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