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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 114
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
2
य꣡द्वा उ꣢꣯ वि꣣श्प꣡तिः꣢ शि꣣तः꣡ सुप्री꣢꣯तो꣣ म꣡नु꣢षो वि꣣शे꣢ । वि꣢꣫श्वेद꣣ग्निः꣢꣫ प्रति꣣ र꣡क्षा꣢ꣳसि सेधति ॥११४॥
स्वर सहित पद पाठय꣢द् । वै । उ꣣ । विश्प꣡तिः꣢ । शि꣣तः꣢ । सु꣡प्री꣢꣯तः । सु । प्री꣣तः म꣡नु꣢꣯षः । वि꣣शे꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । इत् । अ꣣ग्निः꣢ । प्र꣡ति꣢꣯ । रक्षाँ꣢꣯सि । से꣣धति ॥११४॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वा उ विश्पतिः शितः सुप्रीतो मनुषो विशे । विश्वेदग्निः प्रति रक्षाꣳसि सेधति ॥११४॥
स्वर रहित पद पाठ
यद् । वै । उ । विश्पतिः । शितः । सुप्रीतः । सु । प्रीतः मनुषः । विशे । विश्वा । इत् । अग्निः । प्रति । रक्षाँसि । सेधति ॥११४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 114
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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विषय - परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ -
भा० = ( यद्वा उ ) = जब भी ( शितः ) = मन्यु और न्याय युक्त व्यवस्था के भंग होने पर तीक्ष्ण हुआ ( विश्पतिः ) = प्रजाओं का पालक, प्रभु ( मनुषोः विशे ) = मनुष्यों और प्रजाओं के निमित्त ( सुप्रतिः ) = प्रसन्न, दत्तचित्त होता है, तब ( अग्निः ) = अग्नि स्वभाव, पापों का दाहक तेजस्वी वह ( विश्वा इत् ) = सब प्रकार के ( रक्षांसि ) = राक्षसों को ( प्रति सेधति ) = दूर करता है ।
राजा प्रजा को बसाने के लिये वह प्रजा के घातक प्राणियों और आततायी पुरुषों को तीक्ष्ण स्वभाव होकर दूर करे और प्रजा पर सदा प्रसन्न रहे ।
अध्यात्म पक्ष में – विश्पति, इन्द्रियों का राजा आत्मा जब योगादि साधनों से तीक्ष्ण होकर इस देह में स्वच्छ, निर्मल, सुप्रसन्न हो जाता है तब वह आसुरी वृत्तियों पर विजय पाता है और व्युत्थानों को दूर करता है।
टिप्पणी -
११४-'मनुष्यो विशि' इति ॠ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः।
छन्दः - ककुप् ।
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