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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 121
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣣ज्ञ꣡ इन्द्र꣢꣯मवर्धय꣣द्य꣢꣫द्भूमिं꣣ व्य꣡व꣢र्तयत् । च꣣क्राण꣡ ओ꣢प꣣शं꣢ दि꣣वि꣢ ॥१२१॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣣ज्ञः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣वर्धयत् । य꣢त् । भू꣡मि꣢म् । व्य꣡व꣢꣯र्तयत् । वि꣣ । अ꣡व꣢꣯र्तयत् । च꣣क्राणः꣢ । ओपश꣢म् । ओ꣣प । श꣢म् । दि꣣वि꣢ ॥१२१॥


स्वर रहित मन्त्र

यज्ञ इन्द्रमवर्धयद्यद्भूमिं व्यवर्तयत् । चक्राण ओपशं दिवि ॥१२१॥


स्वर रहित पद पाठ

यज्ञः । इन्द्रम् । अवर्धयत् । यत् । भूमिम् । व्यवर्तयत् । वि । अवर्तयत् । चक्राणः । ओपशम् । ओप । शम् । दिवि ॥१२१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 121
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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भावार्थ -

भा० = ( यज्ञः ) = यज्ञ प्रजापति ( इन्द्रं ) = आत्मा को ( अवर्धयत् ) = बढ़ाता है ( यद् ) = क्योंकि यज्ञ ही ( दिवि ) = सूर्य के आश्रय, आकाश में ( ओपशं  ) = लटकाकर ( आ  चक्राण: ) = चक्र के समान चलाता हुआ ( भूमिं  ) = भूमि को ( वि अवर्तयत् ) = विशेषरूप से वृत्तगति में घुमाता है । इस अर्थ से 'इन्द्र' का अर्थ सूर्य' और 'यज्ञ' का अर्थ 'सौर जगत्' या प्रवर्त्तक प्रजापति होता है। समस्त ब्रह्माण्ड में इस सौर जगत् के अनुकरण में ही यह यज्ञवेदी और छोटे अनुपात में यह देह रूप यज्ञभूमि बनी है, वेदमन्त्रों में समान रूप से तीनों का वर्णन किया गया है ।  अध्यात्म पक्ष में - इस जीवन यज्ञ ने इन्द्र आत्मा के सामर्थ्य को बढ़ा दिया है अर्थात् देहरूप कर्मभूमि को नाना प्रकार की प्रवृत्तियों में बहने दिया ।  और द्यौलक रूप मस्तक में वह विद्यमान है, इत्यादि । 
 

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ ।

छन्दः - गायत्री। 

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