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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 268
ऋषिः - पुरुहन्मा आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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न꣢ सी꣣म꣡दे꣢व आप꣣ त꣡दिषं꣢꣯ दीर्घायो꣣ म꣡र्त्यः꣢ । ए꣡त꣢ग्वा꣣ चि꣣द्य꣡ एत꣢꣯शो यु꣣यो꣡ज꣢त꣣ इ꣢न्द्रो꣣ ह꣡री꣢ यु꣣यो꣡ज꣢ते ॥२६८॥

स्वर सहित पद पाठ

न꣢ । सीम् । अ꣡दे꣢꣯वः । अ । दे꣣वः । आप । तत् । इ꣡ष꣢꣯म् । दी꣣र्घायो । दीर्घ । आयो । म꣡र्त्यः꣢꣯ । ए꣡त꣢꣯ग्वा । ए꣡त꣢꣯ । ग्वा꣣ । चित् । यः꣢ । ए꣡त꣢꣯शः । यु꣣यो꣡ज꣢ते । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । हरीइ꣡ति꣢ । यु꣣यो꣡ज꣢ते ॥२६८॥


स्वर रहित मन्त्र

न सीमदेव आप तदिषं दीर्घायो मर्त्यः । एतग्वा चिद्य एतशो युयोजत इन्द्रो हरी युयोजते ॥२६८॥


स्वर रहित पद पाठ

न । सीम् । अदेवः । अ । देवः । आप । तत् । इषम् । दीर्घायो । दीर्घ । आयो । मर्त्यः । एतग्वा । एत । ग्वा । चित् । यः । एतशः । युयोजते । इन्द्रः । हरीइति । युयोजते ॥२६८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 268
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
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भावार्थ -

भा० = हे ( दीर्घायो ) = नित्य आत्मन् ! ( देवः ) = इष्टदेव से रहित ( मर्त्यः ) = मरणधर्मा मनुष्य ( तत् ) = उस परम ( इषम्१  ) = सबके अभिलाषा  के योग्य लक्ष्य को ( न आप ) = नहीं प्राप्त करता । अथवा - ( अदेवः मर्त्यः इषं न आपतत् ) = ईश्वर को छोड़ कर मनुष्य अपने अभिलाषित अन्न के समान भोग्य पदार्थ या इष्टलोक को भी नहीं पहुंचता ।  अथवा - माधव के मत से - ( इषं न आपतत् ) = अपने गन्तव्य परम पद या मार्गे को नहीं चल सकता । ( एतग्वा२  ) = अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अश्व आदि साधनों से युक्त पुरुष जिस प्रकार ( एतश:) = अपने घोड़ों को ( युयोजते ) = रथ में लगाता है और राह पर डाल देता है। उसी प्रकार सबको सन्मार्ग पर लेजाने  वाला ( इन्द्र: ) = महान् ऐश्वर्यशील परमात्मा ही ( हरी ) = उसके घोड़ों को ( युयोजते ) = ठीक मार्ग पर ले जाता है ।

'भगवान् के आश्रय से ही सीधा मार्ग और इष्ट फल  मिलता है, नहीं तो आदमी भटक जाता जाता है ।
 

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

ऋषिः - पुरुहन्मा।

देवता - इन्द्रः।

छन्दः - बृहती।

स्वरः - मध्यमः। 

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