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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 325
ऋषिः - बृहदुक्थ्यो वामदेव्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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वि꣣धुं꣡ द꣢द्रा꣣ण꣡ꣳ सम꣢꣯ने बहू꣣ना꣡ꣳ युवा꣢꣯न꣣ꣳ स꣡न्तं꣢ पलि꣣तो꣡ ज꣢गार । दे꣣व꣡स्य꣢ पश्य꣣ का꣡व्यं꣢ महि꣣त्वा꣢꣫द्या म꣣मा꣢र꣣ स꣡ ह्यः समा꣢꣯न ॥३२५॥

स्वर सहित पद पाठ

वि꣣धु꣢म् । वि꣣ । धु꣢म् । द꣣द्राण꣢म् । स꣡म꣢꣯ने । सम् । अ꣣ने । बहूना꣢म् । यु꣡वा꣢꣯नम् । स꣡न्त꣢꣯म् । प꣣लितः꣢ । ज꣣गार । देव꣡स्य꣢ । प꣣श्य । का꣡व्य꣢꣯म् । म꣣हित्वा꣢ । अ꣣द्या꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । म꣣मा꣡र꣢ । सः । ह्यः । सम् । आ꣣न ॥३२५॥


स्वर रहित मन्त्र

विधुं दद्राणꣳ समने बहूनाꣳ युवानꣳ सन्तं पलितो जगार । देवस्य पश्य काव्यं महित्वाद्या ममार स ह्यः समान ॥३२५॥


स्वर रहित पद पाठ

विधुम् । वि । धुम् । दद्राणम् । समने । सम् । अने । बहूनाम् । युवानम् । सन्तम् । पलितः । जगार । देवस्य । पश्य । काव्यम् । महित्वा । अद्या । अ । द्य । ममार । सः । ह्यः । सम् । आन ॥३२५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 325
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 10;
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भावार्थ -

भा० = ( विधुं ) = विधमनशील, धौंकनी के समान विशेष रीति से शरीर में गति करने वाले, ( समने ) = समान रूप से प्राण धारण करने के कार्य में ( बहूनां ) = बहुतों को ( दद्राणं ) = गति देने वाले, ( युवानं सन्तं ) = युवा, बलशाली होते हुए मुख्य प्राण को भी ( पलितः ) = पुराण पुरुष आत्मा ( जगार ) = अपने भीतर लीन कर लेता है । ( देवस्य ) = उस आत्मदेव के ( काव्यं  ) = ज्ञान -सामर्थ्य को ( पश्य ) = देख ( ह्मः ) = जो भूत काल में ( समान: ) = निरन्तर जीवित रहा, ( स अद्य ) = वह आज भी ( महित्वा ) = उस 'स्व' अपने महिमा या बढ़प्पन में ( ममार ) = अपना प्राण को त्याग देता है अर्थात् उसमें ही लीन हो मुक्त हो जाता है । 

देखो स्पष्टीकरण उपनिषदों के अप्यय -प्रकरण एकायन-प्रकरण और स्व-महिमा में संप्रतिपत्ति प्रकरण । 

परमेश्वर पक्ष में -( विधुं ) = चन्द्र को जिस प्रकार पूर्ण हो जाने के बाद भी सूर्य अमावास्या में ग्रस लेता है उसी प्रकार ( बहूनां ) = बहुत से प्राणों के बीच में सबसे अधिक ( युवानं सन्तं ) = युवा अति बलवान सत् स्वरूप आत्मा ( विधुं दद्राणं ) = चन्द्र के समान आल्हादकारी एवं गतिशील आत्मा को ( पलित:) = सर्वव्यापक, पुराण परमेश्वर ( जगार ) = अपने भीतर ले लेता है ( देवस्य ) = उस महान् परमेश्वर के बनाये ( काव्यं पश्य ) = इस संसारमय ज्ञानस्वरूप कवि विद्वान् परमेश्वर की बनाई रचना को देख कि ( आद्यममार ) = जा अज मरता है ( सः ) = वह ( ह्य:) = फिर दूसरे दिन ( समानः ) = प्राण धारी होकर जीता है। अर्थात् पुनः जन्म लेता है । और जो ही जगत् अबनष्ट होता है वह पुनः बनता है ।

देखो अयर्व० पलित सूक्त । का० ९ । १ । १० ॥

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

ऋषिः - बृहदुक्थ्य:।

देवता - इन्द्रः।

छन्दः - त्रिष्टुभ् ।

स्वरः - धैवतः। 

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