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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 94
ऋषिः - सोमाहुतिर्भार्गवः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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द꣣धन्वे꣢ वा꣣ य꣢दी꣣म꣢नु꣣ वो꣢च꣣द्ब्र꣢꣫ह्मेति꣣ वे꣢रु꣣ त꣢त् । प꣢रि꣣ वि꣡श्वा꣢नि꣣ का꣡व्या꣢ ने꣣मि꣢श्च꣣क्र꣡मि꣢वाभुवत् ॥९४॥

स्वर सहित पद पाठ

द꣣धन्वे꣢ । वा꣣ । य꣢त् । ई꣣म् । अ꣡नु꣢꣯ । वो꣡च꣢꣯त् । ब्र꣡ह्म꣢꣯ । इ꣡ति꣢꣯ । वेः । उ꣣ । त꣢त् । प꣡रि꣢꣯ । वि꣡श्वा꣢꣯नि꣣ । का꣡व्या꣢꣯ । ने꣣मिः꣢ । च꣣क्र꣢म् इ꣣व । अभुवत् ॥९४॥


स्वर रहित मन्त्र

दधन्वे वा यदीमनु वोचद्ब्रह्मेति वेरु तत् । परि विश्वानि काव्या नेमिश्चक्रमिवाभुवत् ॥९४॥


स्वर रहित पद पाठ

दधन्वे । वा । यत् । ईम् । अनु । वोचत् । ब्रह्म । इति । वेः । उ । तत् । परि । विश्वानि । काव्या । नेमिः । चक्रम् इव । अभुवत् ॥९४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 94
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 10;
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भावार्थ -

भा० = ( ईम् ) = इस अग्नि को लक्ष्य करके ही ( दधन्वे१   ) = अध्वर्यु आदि याज्ञिक जिसको धारण करते या शिष्यगण गुरुमुख से श्रवण और स्मरण करते हैं, और वे होता या शिष्य आदि ( ब्रह्म ) = वेदमन्त्र का ( अनुवोचद् ) = पुनः पाठ या उच्चारण करते हैं ( तत् उ ) = वह सब भी ( वे:  ) = ज्ञानवान् प्रकाशस्वरूप अग्नि का  ही है। क्योंकि ( नेमिः चक्रम् इव ) = जिस प्रकार लोहे का हाल चक्र के चारों ओर उसको ढक लेता है उसी प्रकार यह अग्नि भी ( विश्वानि काव्यानि ) = समस्त विद्वानों के बनाये काव्यों, ग्रन्थों और कार्यों को ( आभुवत् ) = व्याप रहा है। अर्थात् समस्त विश्व का साहित्य, इस प्रभु की ही महिमा का गान करता है । 
 

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

 

ऋषिः - भार्गाहुति: सोमो वा ।

छन्दः - अनुष्टुप् । 

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