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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त

    जा॑ङ्गि॒डोऽसि॑ जङ्गि॒डो रक्षि॑तासि जङ्गि॒डः। द्वि॒पाच्चतु॑ष्पाद॒स्माकं॒ सर्वं॑ रक्षतु जङ्गि॒डः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज॒ङ्गि॒डः। अ॒सि॒। ज॒ङ्गि॒डः। रक्षि॑ता। अ॒सि॒। ज॒ङ्गि॒डः। द्वि॒ऽपात्। चतुः॑ऽपात्। अ॒स्माक॑म्। सर्व॑म्‌। र॒क्ष॒तु॒। ज॒ङ्गि॒डः ॥३४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जाङ्गिडोऽसि जङ्गिडो रक्षितासि जङ्गिडः। द्विपाच्चतुष्पादस्माकं सर्वं रक्षतु जङ्गिडः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जङ्गिडः। असि। जङ्गिडः। रक्षिता। असि। जङ्गिडः। द्विऽपात्। चतुःऽपात्। अस्माकम्। सर्वम्‌। रक्षतु। जङ्गिडः ॥३४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे जंगिड ! वनस्पते ! आश्रय वृक्ष के समान प्रजाके रक्षक ! तू (जंगिडः असि) जंगिड अर्थात् शत्रुओं के निगलने वाला अतएव (जंगिडः) ‘तू सचमुच’ जंगिड है। तू (जंगिडः) जंगिड होकर ही (रक्षिता असि) प्रजा का रक्षक है (अस्माकम्) हमारे (द्विपात्) दो पाये और (चतुष्पाद्) चौपाये (सर्वम्) सबको (जंगिडः रक्षतु) जंगिड ही रक्षा करे। ‘जगिड’ के विषय में विशेष विवरण देखो अथर्व० का० २। सू० ४॥ ‘जातानां निगरणकर्त्ता असि अतो’ ‘जंगिड’ इत्युच्यते। यद्वा जंगम्यत शत्रून् बाधितुम् इति जंगिडः। *अथवा जनेर्जयतेर्वाडप्रप्ताये ‘ज’ इति भवति। जं गिरतीति जंगिरः। कपिलकादित्वात् लत्वम्। पूर्वपदस्थस्य सुपो लुगभावश्च्छान्दसः। खच् प्रत्ययो वा द्रष्टव्यः। इति सायणः॥ उत्पन्न हुए प्राणियों को निगलने वाला या शत्रुओं पर चढ़ाई करने वाला या विजयी लोगों को भी निगलने वाला वीर पुरुष ‘जंगिड’ कहाता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अंगिरा ऋषिः। वनस्पतिलिंगोक्तो वा देवता। अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्॥

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