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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 101

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 101/ मन्त्र 3
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१०१

    अग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हा व॑ह जज्ञा॒नो वृ॒क्तब॑र्हिषे। असि॒ होता॑ न॒ ईड्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । दे॒वान् । इ॒ह । आ । व॒ह॒ । ज॒ज्ञा॒न: । वृ॒क्तऽब॑र्हिषे ॥ असि॑ । होता॑ । न॒: । ईड्य॑: ॥१०१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे। असि होता न ईड्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । देवान् । इह । आ । वह । जज्ञान: । वृक्तऽबर्हिषे ॥ असि । होता । न: । ईड्य: ॥१०१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 101; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे (अग्ने) अग्ने ! ज्ञानवन् ! प्रकाशक ! अग्रणी, नेतः ! तू (वृक्तबर्हिषे) बड़े भारी राष्ट्र और प्रजा को प्राप्त करने हारे राजा के लिये (इह) इस सभाभवन में (देवान्) विद्वान् पुरुषों और अधीन विजगीषु पुरुषों को (आवह) प्राप्त करा। तू (नः) हमारे (ईड्यः) स्तुति योग्य, प्रशंसनीय, (होता) यज्ञ में होता के समान ही योग्य पुरुषों को योग्य पदाधिकार देने और उनको स्वीकार करने हारा है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मेधातिथिर्ऋषिः। अग्निर्देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥

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