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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
प्र॑णे॒तारं॒ वस्यो॒ अच्छा॒ कर्ता॑रं॒ ज्योतिः॑ स॒मत्सु॑। सा॑स॒ह्वांसं॑ यु॒धामित्रा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽने॒तार॑म् । वस्य॑: । अच्छ॑ । कर्ता॑रन् । ज्योति॑: । स॒मत्ऽसु॑ । स॒स॒ऽह्वांस॑म् । यु॒धा । अ॒मित्रा॑न् ॥४६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रणेतारं वस्यो अच्छा कर्तारं ज्योतिः समत्सु। सासह्वांसं युधामित्रान् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽनेतारम् । वस्य: । अच्छ । कर्तारन् । ज्योति: । समत्ऽसु । ससऽह्वांसम् । युधा । अमित्रान् ॥४६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 46; मन्त्र » 1
विषय - आत्मा और राजा।
भावार्थ -
(वस्यः) ऐश्वर्य को (अच्छ) प्राप्त करने के लिये (प्रणेतारम्) उत्तम नायक, (समत्सु) संग्रामों और एक आनन्दोत्सवों में (ज्योतिः कर्त्तारम्) ज्ञान प्रकाश और तेज के दिखाने वाले, (युधा) युद्ध द्वारा (अमित्रान्) शत्रुओं को (सासह्वांसम्) पराजय करने हारे पुरुष को हम (अच्छ) प्राप्त करें।
अध्यात्म में—(वस्यः) देह में बसने वाले प्राप्त रूप वस्तुओं में सब से श्रेष्ठ ‘वसीयस’ मुख्य प्राण के प्रणेता आत्मा है, जो अति समाधिरस के अवसरों पर परम आभ्यन्तर ज्योति को उत्पन्न करता है, (युधा) विपक्ष भावना द्वारा राग द्वेषादि शत्रुओं को पराजित करता है उसको (अच्छ) साक्षात् करो। परमेश्वर पक्ष में—समस्त ऐश्वर्यों को प्राप्त कराने वाला, समस्त ज्योतियों का उत्पादक, बाधक शत्रुओं का दलन करता है उसको प्राप्त करो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इरिम्बिठिः काण्व ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥
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